रविवार, 1 दिसंबर 2019

= १९४ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू हरि भुरकी वाणी साधु की,*
*सो परियो मेरे शीश ।*
*छूटे माया मोह तैं, प्रेम भजन जगदीश ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)*
===========================
.
श्रीकृष्ण कहते हैं और हे अर्जुन, जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा; जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत चेतनरूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण भूतों को देखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानंदमय ही देखेगा। श्री कृष्ण कहते हैं, सम्यक विनम्रता से पूछे गए प्रश्न के उत्तर में ज्ञानीजन से जो उपलब्ध होता, उससे मोह-नाश होता है।
.
मोह-नाश का क्या अर्थ है? मोह क्या है? पहला मोह तो यह है कि मैं रहूं। गहरा मोह यह है कि मैं रहूं। जीवन की अभीप्सा; जीता रहूं; कैसे भी सही, जीऊं अवश्य,रहूं अवश्य; मिट न जाऊं जिजीविषा।
.
*जीने का मोह पहला और गहरा मोह है। शेष सब मोह उसके आस-पास निर्मित होते हैं। यदि कोई घर से मोह करता, तो वास्तव में घर से कोई मोह नहीं करता। घर का मोह, मात्र इतना ही की मैं रह सकूं ठीक से, मैं बच सकूं ठीक से, उसी मोह का विस्तार है। कोई धन से मोह करता। धन का मोह अपने में व्यर्थ है। अपने में उसकी कोई जड़ नहीं। उसकी जड़ उस "मैं" के बचाए रखने में ही है। धन न होगा, तो बचूंगा कैसे? धन होगा, तो बचने की चेष्टा कर सकता हूं। यदि और संक्षिप्त में कहें, तो मोह मृत्यु के विरुद्ध संघर्ष है।*
.
श्री कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा जब बहती, तो सबसे पहले मोह को नष्ट करती है। मोह को इसलिए नष्ट करती है कि मोह अज्ञान है। अज्ञान को यदि हम समझें, तो कहें, अव्यक्त मोह है। और मोह को यदि ठीक समझें, तो कहें, व्यक्त अज्ञान है। जब अज्ञान व्यक्त होता, तब मोह की तरह फैलता है, व्यक्त अज्ञान। जब तक भीतर छिपा रहता अज्ञान, तब तक ठीक; और जब वह फूटता और फैलता हमारे चारों तरफ, तब मोह का वर्तुल बनता है। फिर मेरे मित्र, प्रियजन, पति, पत्नी, पिता, पुत्र, मकान, धन, फैलता चला जाता है। और मोह के फैलाव का कोई अंत नहीं है। अनंत है उसका विस्तार। अनंत फैल सकता है। चन्द्रमा तारे मिल जाएं, तो तृप्त नहीं होगा। और आगे भी चन्द्रमा तारे हैं, वहां भी फैलना चाहेगा।
.
क्यों? इतना अनंत क्यों फैलना चाहता है मोह? इसलिए फैलना चाहता है कि जहां तक मोह नहीं फैल पाता, वहीं से भय की संभावना है। जो मेरा नहीं है, उसी से डर है। इसलिए सभी को मेरे बना लेना चाहता है। जो मकान मेरा नहीं है, वहीं से खतरा है। जो जमीन मेरी नहीं है, वहीं से शत्रुता है। तो जहां तक मेरे का फैलाव है, वहां तक मैं सम्राट हो जाता हूं; उसके बाहर मैं फिर भी भिखारी हूं। इसलिए मेरे को फैलाता चला जाता है मनुष्य । मोह दुख के अतिरिक्त और कहीं ले जाता नहीं। अब ऐसा समझें, अज्ञान छिपा हुआ मोह है। अज्ञान प्रकट होता है, तो मोह बनता है। मोह सफल होता है, तो दुख बनता है; असफल होता है, तो दुख बनता है।
.
*इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की पहली धारा का जब आघात होता है, तो सबसे पहले मोह छूट जाता, टूट जाता, बिखर जाता। जैसे सूरज की किरणें आएं और बर्फ पिघलने लगे, ऐसे मोह का पिघलना बर्फ का पत्थर जो छाती पर रखा है, वह ज्ञान की पहली धारा से पिघलता शुरू होता है। और जब मोह पिघल जाता है, जब मोह मिट जाता है, तब व्यक्ति जानता है कि मैं जिसे बचा रहा था, वह तो था ही नहीं। जो नहीं था, उसको बचाने में लगा था, इसलिए दुखी था।*

जो नहीं है, उसको बचाने में लगा हुआ व्यक्ति परेशान होगा ही। जो है ही नहीं, उसे कोई बचाएगा कैसे? मैं हूं ही नहीं अलग और पृथक इस विश्व की सत्ता से। उसी को बचाने में लगा हूं। वही मेरी पीड़ा है। अहंकार सिकुड़कर पत्थर का बर्फ बन जाता है। पानी नहीं रह जाता, तरल नहीं रह जाता, बहाव नहीं रह जाता। अहंकार में बिलकुल बहाव नहीं होता है। प्रेम में बहाव होता है। इसलिए जब तक अहंकार होता है, तब तक प्रेम पैदा नहीं होता। और एक बात कि प्रेम और मोह बड़ी अलग बातें हैं। अलग ही नहीं, विपरीत। जिनके जीवन में मोह है, उनके जीवन में प्रेम पैदा नहीं होता। और जिनके जीवन में प्रेम है, वह तभी होता है, जब मोह नहीं होता। परन्तु हम प्रेम को मोह कहते रहते हैं।
.
*इसलिए उपनिषद कहते हैं कि सब अपने को प्रेम करते हैं। अपने को जो सहारा देता है बचने में, उसको भी प्रेम करते हुए दिखाई पड़ते हैं। वह केवल मोह है। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब दूसरा भी अपना ही दिखाई पड़े। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब प्रभु का अनुभव हो, अन्यथा नहीं हो सकता है। प्रेम केवल वे ही कर सकते हैं, "जो नहीं रहे"। बड़ी उलटी बातें हैं।*
.
*जो नहीं बचे, वे ही प्रेम कर सकते हैं। जो बचे हैं, वे केवल मोह ही कर सकते हैं। क्योंकि बचने के लिए मोह ही मार्ग है। प्रेम तो मिटने का मार्ग है। प्रेम तो पिघलना है। इसलिए प्रेम वह नहीं कर सकता, जिसको अपने को बचाना है।
इसलिए देखें, जितना व्यक्ति जीवन को बचाने की चेष्टा में रत होगा, उतना प्रेम शून्य हो जाएगा। तिजोरी बड़ी होती जाएगी, प्रेम रिक्त होता जाएगा। घर बड़ा होता जाएगा, प्रेम समाप्त होता जाएगा।*
.
*दीन-दरिद्र के पास प्रेम दिखाई भी पड़ जाए; समृद्ध के पास प्रेम के समाचार भी नहीं मिलेंगे। क्यों? क्या हो गया? वास्तव में समृद्ध होने की जो तीव्र चेष्टा है, वह भी मैं को बचाने की है, मोह को बचाने की है। मोह जहां है, वहां प्रेम पैदा नहीं हो पाता।*
.
*श्री कृष्ण कहते हैं, जब मोह पिघल जाता है अर्जुन, तो व्यक्ति मेरे साथ एकाकार हो जाता है; सच्चिदानंद से एक हो जाता है। फिर भेद नहीं रह जाता। भेद ही मोह का है। भेद ही, मैं हूं, इस घोषणा का है। अभेद, मैं नहीं हूं, तू ही है, इस घोषणा का है।*
*परन्तु यह घोषणा प्राणों से उठनी चाहिए, कंठ से नहीं। तू ही है, यह घोषणा प्राणों से आनी चाहिए, कंठ से नहीं। यह घोषणा हृदय से आनी चाहिए, मस्तिष्क से नहीं। यह घोषणा रोएं-रोएं से आनी चाहिए, खंड अस्तित्व से नहीं। उस क्षण में एकात्म फलित होता, अद्वैत फलित होता, दुई गिर जाती।*
.
*परम हर्षोन्माद का क्षण है वह। नाच उठता है फिर रोआं-रोआं; गीत गा उठते हैं फिर श्वास के कण-कण। परन्तु गीत अनगाए, व्यक्ति के ओंठों से अस्पर्शित, जूठे नहीं। नृत्य अनजाना, अपरिचित; ताल-सुर नहीं, व्यवस्था संयोजन नहीं।*
.
*श्री कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा में टूटा मोह और व्यक्ति परम में निमज्जित हो जाता है। वही है परम अभिप्राय जीवन के होने का। मोह है, हमारी अहंकार की कुचेष्टा। मोह है, अपने ही हाथों अपने ही आस-पास परकोटा बनाना। बंद करना अपने को, सूर्य के प्रकाश से। तोड़ना अपने को, जगत के अस्तित्व से। बनाना अंधा अपने को, प्रभु के प्रसाद से।*
.
इसलिए श्री कृष्ण ने इस से पूर्व के श्लोक में में कहा हे अर्जुन, दंडवत करके, विनम्रता से, अपने को छोड़कर, जब कोई किसी ज्ञान की धारा के निकट झुकता है और धारा उसमें बह जाती है, तब उसके भीतर सब मोह हट जाता है, मोह का तम कट जाता है। उस प्रकाश के क्षण में वह अपने को मेरे साथ एक ही जान पाता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें