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*भाव भक्ति लै ऊपजै, सो ठाहर निज सार ।*
*तहँ दादू निधि पाइये, निरंतर निरधार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजता है। प्रत्येक व्यक्ति का कुछ अपना निज है; वही उसकी आत्मा है। उस निजता में ही जीना आनंद है और उस निजता से भटक जाना ही दुख है।
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श्री कृष्ण के इस श्लोक में दो बातें कही हैं। एक, स्वधर्म में मर जाना भी श्रेयस्कर है। स्वधर्म में भूल-चूक से भटक जाना भी श्रेयस्कर है। परधर्म में सफल हो जाने की अपेक्षा स्वधर्म में असफल हो जाना भी श्रेयस्कर है।
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*स्वधर्म क्या है? और परधर्म क्या है? प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है। और किन्हीं दो व्यक्तियों का एक स्वधर्म नहीं है। पिता का धर्म भी बेटे का धर्म नहीं है। गुरु का धर्म भी शिष्य का धर्म नहीं है। यहां धर्म से अर्थ है, स्वभाव, प्रकृति, अंतःप्रकृति। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अंतःप्रकृति है, परन्तु है बीज की तरह बंद, अविकसित है। और जब तक बीज अपने में बंद है, तब तक विचलित है। जब तक बीज अपने में बंद है और खिल न सके, फूट न सके, अंकुर न बन सके, और फूल बनकर बिखर न सके जगत सत्ता में, तब तक विचलित ही रहेगा। जिस दिन बीज अंकुरित होकर वृक्ष बन जाता है, फूल खिल जाते हैं, उस दिन परमात्मा के चरणों में वह अपनी निजता को समर्पित कर देता है। फूल के खिले हुए होने में जो आनंद है, वैसा ही आनंद स्वयं में जो छिपा है, उसके खिलने में भी है। और परमात्मा के चरणों में एक ही नैवेद्य, एक ही फूल चढ़ाया जा सकता है, वह है स्वयं की निजता का खिला हुआ फूल। और कुछ हमारे पास चढाने को भी नहीं है।*
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जब तक हमारे भीतर का फूल पूरी तरह न खिल पाए, तब तक हम संताप, दुख, विचलित और तनाव में जीएंगे। इसलिए जो व्यक्ति परधर्म को ओढ़ने का प्रयास करेगा, वह वैसी ही कठिनाई में पड़ जाएगा, जैसे चमेली का वृक्ष चंपा के फूल लाने के प्रयास में पड़ जाए। गुलाब का फूल कमल होने के प्रयास में पड़ जाए, तो जैसा विचलन में गुलाब का फूल पड जाएगा। और विचलित पन दोहरी होगी। एक तो गुलाब का फूल कमल का फूल कितना ही होना चाहे, हो नहीं सकता है; असफलता सुनिश्चित है। गुलाब का फूल कुछ भी चाहे, तो कमल का फूल नहीं हो सकता। न कमल का फूल कुछ चाहे, तो गुलाब का फूल हो सकता है। वह असंभव है। स्वभाव के प्रतिकूल होने के प्रयास भर हो सकता है, होना नहीं हो सकता।
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परधर्म को हम ओढ़ लेते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो स्वधर्म तब तक हमें पूरी तरह पता नहीं चलता, जब तक कि फूल खिल न जाए। गुलाब को भी पता नहीं चलता तब तक कि उसमें से क्या खिलेगा, जब तक गुलाब खिल न जाए। तो बड़ी कठिनाई है, स्वधर्म क्या है? मर जाते हैं और पता नहीं चलता, जीवन हाथ से निकल जाता है और पता नहीं चलता कि मैं क्या होने को पैदा हुआ था, परमात्मा ने किस उद्देश्य पर भेजा था? कौन सी यात्रा पर भेजा था। मुझे क्या होने को भेजा था, मैं किस बात का दूत होकर पृथ्वी पर आया था, इसका मृत्यु पर्यान्त तक पता नहीं चलता।
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न पता चलने में सबसे बड़ी जो बाधा है, वह यह है कि चारों तरफ से परधर्म के प्रलोभन विधमान हैं, जो कि पता नहीं चलने देते कि स्वधर्म क्या है। गुलाब तो खिला नहीं है, अभी उसे पता नहीं है, परन्तु बाजू में कोई कमल खिला है, कोई चमेली खिली है, कोई चंपा खिली है। वे खिले हुए हैं, उनकी सुगंध पकड़ जाती है, उनका रूप पकड़ जाता है, उनका आकर्षण, उनकी नकल पकड़ जाती है और मन होता है कि मैं भी यही हो जाऊं। बुद्ध पुरुष के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा कि मैं भी आत्मवान हो जाऊं। खिला फूल है वहां।
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*स्वयं का कोई बोध हैं नहीं कि मैं क्या हो सकता हूं परन्तु आस-पास खिले हुए फूल दिखाई पड़ सकते हैं। और उनमें भटकाव है। क्योंकि श्री कृष्ण, इस पृथ्वी पर श्री कृष्ण के सिवाय और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। उस दिन नहीं, आज भी नहीं, कल भी नहीं, कभी नहीं। परमात्मा पुनरुक्ति करता ही नहीं है, परमात्मा बहुत मौलिक सर्जक है। उसने अब तक पुनः एक व्यक्ति भी पैदा नहीं किया। हजारों साल बीत गए श्री कृष्ण को हुए, दूसरा कृष्ण पैदा नहीं हुआ। परन्तु लाखों लोगों ने प्रयास किया हैं की कृष्ण हो जाऊं, परन्तु कोई भी श्री कृष्ण नहीं हुआ।
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*इस पृथ्वी पर पुनरुक्ति नहीं है। पुनरुक्ति तो केवल वे ही करते हैं, जिनके सृजन की क्षमता सीमित होती है। परमात्मा की सृजन की क्षमता असीम है।* परधर्म लुभाता है, क्योंकि परधर्म खिला हुआ दिखाई पड़ता है। स्वधर्म का पता नहीं चलता, क्योंकि वह भविष्य में है। परधर्म अभी है, पड़ोस में खिला है, वह आकर्षित करता है कि मैं भी ऐसा हो जाऊं।
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श्री कृष्ण कह रहे हैं की हे अर्जुन, दूसरे के धर्म से सावधान होने की आवश्यकता है और स्वधर्म पर दृष्टि लगाने की आवश्यकता है। इस बात की खोज करने की आवश्यकता है कि मैं क्या होने को हूं? मैं क्या हो सकता हूं? मेरे भीतर छिपा बीज क्या मांगता है? और साहसपूर्वक उस यात्रा पर निकलने की आवश्यकता है।
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*स्वधर्म का अर्थ है, पृथ्वी पर जितनी आत्माएं हैं, उतने धर्म हैं, उतने स्वभाव हैं। दो कंकड़ भी एक जैसे खोजना कठिन हैं, दो व्यक्ति तो खोजना बहुत ही कठिन है। सारी पृथ्वी को छान डालें, तो दो कंकड़ भी नहीं मिल सकते, जो कदाचित एक जैसे हों। मनुष्य बड़ी घटना है। कंकड़ों तक के संबंध में परमात्मा व्यक्तित्व देता है, तो मनुष्य के संबंध में तो देता ही है।*
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