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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग-३)*
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*दादू कहै, साध दुखी संसार में, तुम बिन रह्या न जाइ ।*
*औरों के आनन्द है, सुख सौं रैन बिहाइ ॥९१॥*
*दादू लाइक हम नहीं, हरि के दर्शन जोग ।*
*बिन देखे मर जाहिंगे, पीव के विरह वियोग ॥९२॥*
“हे प्रभो ! मेरी व्यथा दूर करो । क्या कहूँ? इस संसार में मेरे जैसे विरही भक्तों के अतिरिक्त सभी सुखी हैं । केवल मुझ जैसे ही दुःखी हैं, क्योंकि आपके विना उनका जीना ही कठिन है । अहो ! मैं जान गया ! मैं तो आपके दर्शन योग्य ही नहीं हूँ । अतएव आप आकर दर्शन नहीं दे रहे । अहो ! कितने कष्ट की बात है ! क्या मैं आपके दर्शन विना ही मर जाऊँगा?॥९१-९२॥”
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*विरह पतिव्रत*
*दादू सुख सांई सौं, और सबै ही दुख ।*
*देखूँ दर्शन पीव का, तिस ही लागे सुख ॥९३॥*
*चन्दन सीतल चन्द्रमा, जल सीतल सब कोइ ।*
*दादू विरही राम का, इन सौं कदे न होइ ॥९४॥*
विचारदृष्टि से यह निखिल संसार दुःखमय ही जान पड़ता है । केवल परमात्मा ही सच्चिदानन्दमय होने से आनन्दरूप हैं । अतः उसकी प्राप्ति या दर्शन से ही मैं सुखी हो सकता हूँ । अन्य किसी साधन से नहीं ।
यद्यपि चन्द्रमा और जल शीतल हैं, परन्तु विरही जनों के लिये ये दोनों ही व्यर्थ हैं, इनसे विरही जनों का अन्तस्ताप दूर नहीं हो सकता । किन्तु चन्द्रमा के दीखने से तो विरही जनों का ताप बढ़ता ही है, जैसा कि भक्तिरसायन में लिखा है-
“हे चन्द्र ! तुम भगवान् के बाएँ नेत्र हो हम ‘वामनेत्रा’ कहलाती हैं । अतः कृष्ण के साथ आपकी मित्रता सिद्ध है । इस समय हम वियोगिनी हैं । अतः आपका कर्तव्य है कि हमारे दुःख को दूर करने में आप सहायक बनें । किन्तु आप तो अपनी शीतल किरणों से हमें दुःखी ही कर रहे हो ।
हे चन्द्रदेव ! जिस मन से तुम पैदा हुए हो हमारे उसी मन को तुम अतिशय दुःखी कर रहे हो । खल का तो यह स्वभाव ही है कि वह दूसरों को दुःखी ही करता है । चन्द्रमा ! तुम भी खल ही तो हो ।(चन्द्रपक्ष में - ‘ख’ कहते हैं आकाश को, उसमें जो लीन हो जाता है उसे ‘खल’ कहते हैं - यह खल पद की व्याख्या है) ॥९३-९४॥”
(क्रमशः)
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