रविवार, 12 जनवरी 2020

विरह का अंग १४०/१४३

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग-३)*
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*विरही विरह लष्यन* 
*दादू विरह प्रेम की लहर में यह मन पंगुल होइ ।* 
*राम नाम में गलि गया, बूझे बिरला कोइ ॥१४०॥* 
गोविन्द भगवान् की प्रेमसमुद्र की तरंगों में मेरा मन गोते लगाता हुआ नामामृत का निरन्तर पान करते रहने पर भी उसमें अतृप्त सा रहता हुआ अपने नयनाश्रुओं से पृथ्वी गीला कर देता है । ऐसा भक्त मिलना दुर्लभ हैं ॥१४०॥ 
*बिरह ज्ञान अग्नि* 
*दादू विरह अग्नि में जल गये, मन के मैल विकार ।* 
*दादू विरही पीव का, देखेगा दीदार ॥१४१॥* 
जिस भक्त के सभी मनोविकार विरहाग्नि से दग्ध हो चुके हों वही भगवत्प्रेमी भक्त हरि का दर्शन का पात्र है ॥१४१॥ 
*विरह अग्नि में जल गये, मन के विषय विकार ।* 
*ताथैं पंगुल ह्वै रह्या, दादू दर दीदार ॥१४२॥* 
विरहाग्नि से जिसने अपने सकल विषयविकारों को जला डाला, और जो लोकान्तर के भोगों की कभी इच्छा नहीं करता, ऐसा भक्त भगवान् के सान्निध्य में ही रहता है ॥१४२॥
*जब विरहा आया दर्द सौं, तब मीठा लगा राम ।* 
*काया लागी काल ह्वै, कड़वे लागे काम ॥१४३॥* 
विरहभक्ति के पैदा होने पर एकमात्र रामनाम ही मीठा लगता है, अन्य सब सांसारिक कर्म कटु प्रतीत होते हैं । देहाध्यास के मिट जाने से सामान्य शरीरकृत्य भी कालसदृश प्रतीत होते हैं ॥१४३॥ 
(क्रमशः)

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