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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग-३)*
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*बिरह बाण*
*जब राम अकेला रह गया, तन मन गया बिलाइ ।*
*दादू विरही तब सुखी, जब दर्श पर्श मिल जाइ ॥१४४॥*
विरहाग्नि से जब शरीर का अध्यास व मन के विकार नष्ट हो जाते हैं, तब साधक के चित्त में केवल राम नाम का चिन्ह ही शेष रह जाता है, तदन्तर, ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर विरही सुखी हो जाता है ॥१४४॥
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*विरही विरहा लष्यन*
*जे हम छाड़ै राम को, तो राम न छाड़ै ।*
*दादू अमली अमल तैं, मन क्यों करि काढै ॥१४५॥*
मद्य पीने वाला जैसे मद्य को नहीं भूलता, उसी प्रकार विरही पुरुष परमात्मा को नहीं भूल पाता । उधर, परमात्मा भी ऐसे भक्त के हृदय मन्दिर को नहीं छोड़ते । भागवत में लिखा है-
सभी लोकों के बीच, वे निर्धन मनुष्य धन्यवाद के पात्र हैं जिनके हृदय में श्रीहरि की भक्ति नित्य विराजी रहती है । हरि भी, अपने लोक को छोड़कर भक्त के हृदय में भक्तिसूत्र से बंध जाते हैं ॥१४५॥
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*विरहा पारस जब मिला, तब विरहनी विरहा होइ ।*
*दादू परसै विरहनी, पीव पीव टेरे सोइ ॥१४६॥*
पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है । ऐसे विरहरूपी पारस के स्पर्श से विरहिजन विरह का रूप ले लेता है । यह विरह की उत्कट अवस्था है । इस अवस्था में भगवान् का स्मरण करते हुए भक्त भगवद्रूप हो जाता है । कहा भी है-
“अग्नि में तपाया हुआ सोना अपना मल त्यागकर विशुद्ध स्वर्णरूप हो जाता है । ऐसे ही भक्ति के द्वारा भक्त कर्मों को नष्ट कर मेरी भक्ति द्वारा मुझ ही को भजता है ॥
और जैसे जैसे मेरी पवित्र गाथाओं को सुनने से तथा मेरा नाम जपता है, वैसे वैसे इस नाम जप के प्रभाव से सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु को ऐसे देखने लगता है, जैसे आँखों में अंजन डालने से सूक्ष्म पदार्थ भी दिखायी देने लगते हैं ॥१४६॥”
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*आशिक माशूक ह्वै गया, इश्क कहावै सोइ ।*
*दादू उस माशूक का, अल्लाह आशिक होइ ॥१४७॥*
विरह की उत्तम दशा में, परस्पर एक का दूसरे से अभेद हो जाता है । जैसे भक्त को भगवान् प्रिय है, वैसे ही भगवान् को भी भक्त प्रिय हो जाता है । गीता में लिखा है-
“जो भक्त मुझे श्रद्धा से भजता है, वह मुझे सबसे अच्छा लगता है । उन भक्तों में भी ज्ञानी भक्त, नित्य मेरे में लगे रहने से, उसकी भक्ति एकनिष्ठ हो जाने के कारण विशिष्ट भक्ति कहलाती है । क्योंकि ज्ञानी भक्त को मैं अत्यधिक प्रिय हूँ और मुझे भी ज्ञानी बहुत प्रिय है ॥ १४७॥”
(क्रमशः)
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