शनिवार, 4 जनवरी 2020

विरह का अंग १०३/१०७


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग-३)*
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*दादू तप्त बिना तन प्रीति न ऊपजै, संग ही शीतल छाया ।* 
*जनम लगै जीव जाणैं नाहीं, तरवर त्रिभुवन राया ॥१०३॥* 
*दादू चोट बिना तन प्रीति न ऊपजै, औषध अंग रहंत ।* 
*जनम लगै जीव पलक न परसै, बूंटी अमर अनंत ॥१०४॥* 
*दादू चोट न लागी विरह की, पीड़ न उपजी आइ ।* 
*जागै न रोवै धाह दे, सोवत गई बिहाइ ॥१०५॥* 
*दादू पीड़ न ऊपजी, ना हम करी पुकार ।* 
*ताथैं साहिब ना मिल्या, दादू बीती बार ॥१०६॥* 
ऐसे ही कोई शरीर में ताप के विना किसी वृक्ष की शीतल छाया में जा कर बैठने की इच्छा नहीं करता । कोई भी शरीर में रोग के विना अच्छी से अच्छी औषध खाने की भी इच्छा नहीं करता । इसी तरह, साधक के मन में उत्कट इच्छा के विना, कोई भी साधक भक्ति में नहीं लगता । ऐसे ही ज्ञान की जिज्ञासा के विना, कोई भी अस्ति-भांति-प्रिय रूप से सर्वत्र, किसी तालाब की तरह व्यापक होने पर भी ब्रह्म को जानना नहीं चाहता । ब्रहमज्ञान के विना मोह निवृत्त नहीं होता और विरह व्यथा के विना रोना नहीं बनता और पीड़ा के विना कोई जागता भी नहीं है । अपितु विषयभोगों में अपनी सम्पूर्ण आयु व्यतीत कर देता है । अन्त में, पीड़ित होकर भी प्रार्थना नहीं कर पाता । तो भगवान् कैसे मिलें? इसलिये भगवान् की प्राप्ति के लिये साधक की विरह की अत्युत्कट अवस्था होनी चाहिये । 
*अंदर पीड़ न ऊभरै, बाहर करै पुकार ।* 
*दादू सो क्यों करि लहै, साहिब का दीदार ॥१०७॥* 
भक्ति भाव प्रधान होती है और भाव आन्तरिक होता है, बाह्य नहीं । तन्त्रशास्त्र में लिखा है- 
“प्रेम की प्रथमावस्था को ‘भाव’ कहते हैं । भाव की प्रथम अवस्था में थोड़े-थोड़े अश्रुपात तथा शरीर का पुलकित होना होता है ।” 
इसका उदाहरण पद्मपुराण में आया है- “भगवान् के चरणकमलों का बार बार ध्यान करने से मन कुछ द्रवित हो जाता है । तब आँखों से अश्रुपात होने लगते हैं ।” 
भक्तिरसामृतसिन्धु में लिखा है- 
“शुद्ध सत्त्वगुण ही विशेष रूप से प्रेमसूर्य कहलाता है और सूर्य की तरह अपनी प्रेमकिरणों को फैलाता हुआ चित्त को द्रवित कर देता है । यही भाव का लक्षण है । अतः आन्तरिक भाव से तथा विरहजन्य पीड़ा से बार बार प्रार्थना कर ।” 
(क्रमशः)

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