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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= (२१. संस्कृत श्लोका:) =*
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*छंद अनुष्ठुप्*
*अहं ब्रह्मेत्यहं ब्रह्मेत्यहं ब्रह्मेति निश्चयम् ।*
*ज्ञाता ज्ञेयं भवेदेकं द्विधा भावविवर्जितम् ॥३॥*
‘अहं ब्रह्म’ – ऐसा कहने पर, ‘मैं ब्रह्म ही हूँ’ या ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’- यह समझना चाहिये । वस्तुतः ज्ञाता(जानने वाला) एवं ज्ञेय(जानने योग्य विषय) – दोनों एक ही हैं । भिन्न नहीं । दिव्य ज्ञान होने की दशा में वे एक हो ही जाते हैं । इनका द्विधा(द्वैत) भाव-द्वैत(‘ब्रह्म एवं माया’) ‘मैं और तूँ’, ‘ज्ञाता एवं ज्ञेय’ ऐसा भाव नष्ट हो जाता है ॥३॥
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*अहं विख्यात चैतन्यं देहो नाहं जडात्मकम् ।*
*जडाजडो न सम्बन्धो देहातीतं निरामयम् ॥४॥*
मैं(आत्मा) प्रसिद्ध-चेतन(ब्रह्म) हूँ । जडात्मक स्थूल देह नहीं हूँ । निष्कर्ष यह है – देह में आत्मा का अध्यास अज्ञान है । जड के साथ चेतन का सम्बन्ध सत्य(यथार्थ) नहीं है । जो चेतन है वह जड़ नहीं है तथा जो जड़ है वह चेतन नहीं । क्योंकि समस्त जड़ पदार्थ ही चेतन नहीं है, वे मिथ्या भ्रम हैं । जो कुछ है वह चेतन है । उसी की सत्ता है, क्योंकि वह चेतन निरामय(निर्लेप, निरञ्जन) एवं मायातीत देह से भिन्न है ॥४॥
(क्रमशः)
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