शनिवार, 18 जनवरी 2020

जरणा कौ अंग ४/७

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ जरणा कौ अंग)
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*दादू समझ समाइ रहु, बाहरि कहि न जनाइ ।* 
*दादू अद्भुत देखिया, तहँ ना को आवै जाइ ॥४॥* 
*कहि कहि क्या दिखलाइये, सांई सब जाने ।* 
*दादू प्रगट क्या कहै, कुछ समझि सयाने ॥५॥* 
*दादू मन ही मांहैं ऊपजै, मन ही मांहि समाइ ।* 
*मन ही मांहैं राखिये, बाहर कहि न जनाइ ॥६॥* 
इसलिये श्रुति कहती है- 
“जिसका यह मानना है कि ब्रह्म जानने में नहीं आता, तो मानलो कि उसका वह जाना हुआ है । और जिसका यह मानना है कि ‘ब्रह्म मेरा जाना हुआ है’, वह ब्रह्म को बिलकुल नहीं जानता । क्योंकि ज्ञानाभिमानी पुरुष को ब्रह्म ज्ञान हो ही नहीं सकता । उसके लिये वह अविदित है ।” 
परमात्मा के जिस स्वरूप का लक्ष्य कराया गया है, उसका सम्यक्तया समझ लेना ही वास्तविक ज्ञान है । अन्तर्यामी परमात्मा से ही वह उस परमात्मा को जानने की शक्ति प्राप्त करता है । और उस ज्ञान के सहारे से अमृतस्वरूप परब्रह्म पुरुषोत्तम को प्राप्त कर पाता है । इसलिये कोई भी अपने मुख से ‘मैंने ब्रह्म को जान लिया’- ऐसा नहीं कह सकता है; क्योंकि उस को जाननेवाला तो ब्रह्मरूप हो गया, अतः वह कहने में असमर्थ है । जो नहीं जानता वह भी नहीं कह सकता; क्योंकि वह जानता ही नहीं है । इसी अभिप्राय से श्री दयालु जी महाराज ने कहा है- ‘दादू अद्भुत देखिया, तहँ नाँ कोई आवै जाइ’ । उस ब्रह्म में, व्यापक होने के कारण, आवागमन बनता नहीं । किन्तु ईश्वर सर्वज्ञ है, वह सबको जानता है, अतः उसके आगे कुछ भी कहना व्यर्थ है । इसी प्रकार अन्य के आगे कहना भी व्यर्थ है; क्योंकि उसको कहने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा । प्रत्युत ऐसे व्यर्थ कथन से ज्ञान नष्ट हो जायगा ॥४-६॥ 
*लै विचार लागा रहै, दादू जरता जाइ ।* 
*कबहुँ पेट न आफरै, भावै तेता खाइ ॥७॥* 
पाचन की क्षमता के अनुसार किया हुआ भोजन कभी अजीर्ण या आध्मान पैदा नहीं करता; वैसे ही जो साधक हरि भक्तिजन्य साक्षात्कार रूप फल को किसी से नहीं कहता, किन्तु सुरक्षित एवं गुप्त रखता है, उनके मन में आध्मान तुल्य अहंकार पैदा नहीं होता कि मैं ज्ञानी हूँ । अतः विवेक द्वारा आत्मनिष्ठ हो कर आत्मसाक्षात्कार की परिपाकावस्था पर्यन्त हरि का ही ध्यान करता रहे । वरदान या शाप द्वारा साक्षात्कार रूप फल को नष्ट न करे । योगवाशिष्ठ में लिखा है- 
“मेरे कोई कर्तव्य नहीं है । मैं तो पृथ्वी पर बेमन से ही रह रहा हूँ । शान्त एवं सुप्त बुद्धि से ही मैं लोकव्यवहार के कर्म करता हूँ । फिर भी ‘मैं इनका करता हूँ’- ऐसा मुझे अभिमान नहीं है ।” 
“यह अहंकार व्यर्थ ही पैदा होता है । मोह से वृद्धिङ्गत होता है । इस मिथ्यामयरूपी अहंकार से मैं डरता हूँ । यह अहंकार दुष्ट शत्रु है ।” 
“अहंकार से जो कुछ मैंने खाया, हवन या और कोई कर्म किया- यह सब व्यर्थ ही है; क्योंकि वस्तु तो अहंकार रहित है । अतः किसी भी वस्तु का अहंकार न करना ही उचित है” ॥७॥
(क्रमशः)

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