शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

जरणा कौ अंग १/४

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~  महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ जरणा कौ अंग)
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।* 
*वंदनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥* 
*को साधु राखै रामधन, गुरु बाइक वचन विचार ।* 
*गहिला दादू क्यों रहै, मरकत हाथ गँवार ॥२॥* 
गुरुकृत उपदेश से ज्ञानबोधक वाक्यों द्वारा प्राप्त ज्ञान धन अति दुर्लभ ही । उसकी अणिमादि अष्ट सिद्धियों से, काम क्रोधादि विकारों से, तथा इस लोक व परलोक के भोगों से जीवन्मुक्तिसुख की प्राप्ति के लिये रक्षा करनी चाहिये । नहीं तो, मुर्ख के हाथ में गयी मरकत मणि जैसे थोड़े से मूल्य के लोभ से दूसरे के हाथ में चली जाती है । ऐसी हे अणिमादि सिद्धियों के लोभ से कामादि विकारों से प्राप्त धन भी नष्ट हो जाता है । अतः यह ज्ञान धन सर्वदा और सर्वथा गोपनीय है । यह अनधिकारी व्यक्ति को भी नहीं देना चाहिये । महाभारत में लिखा है- 
“जैसे अग्नि के शान्त होने पर भस्म में डाला हुआ घी न तो देवताओं को प्राप्त होता है और न ही पितृगण को, ऐसे ही नाचने-गाने व झूँठ बोलने वालों को दी गयी दक्षिणा निष्फल ही होती है । अपात्र पुरुष को दी हुई दक्षिणा न दाता को ही तृप्त करती है न दान लेने वाले को ही, अपितु वह विनाशकारीणी एवं निन्दित दक्षिणा दाता के पितृगण को देवयान मार्ग से नीचे गिरा देती है ।” 
*जनि खोवे दादू रामधन, रिदै राखि, जनि जाइ ।* 
*रतन जतन करि राखिये, चिंतामणि चित लाइ ॥३॥* 
हे साधक ! यह रामधन बहुत दुर्लभ है, अपने हृदय में इसको गुप्त रखो । शाप या वरदान द्वारा व्यर्थ ही न खोओ । राम भजन से प्राप्त साक्षात्कार रूप रत्न को अन्तर्मुखी वृत्ति द्वारा छिपाये रखना चाहिये । क्योंकि यह चिन्तामणि की तरह सर्वकार्य सिद्धिकारक है । 
किसी ने कहा है- जैसे रत्नपेटिका को सुरक्षित रखा जाता है, किसी को दिखाया नहीं जाता; या फिर जैसे उत्तम कुल स्त्री के साथ किया गया सम्भोग कहा नहीं जाता; उसी तरह आत्मज्ञान को भी सुरक्षित व गुप्त रखना चाहिये ॥३॥ 
*दादू मन ही मांहि समझ कर, मन ही मांहि समाइ ।* 
*मन ही मांहि राखिये, बाहर कहि न जनाइ ॥४॥* 
इन साखीवचनों द्वारा महाराज श्री उपदेश कर रहे हैं- साधना द्वारा उत्पन्न ब्रह्म ज्ञान को स्वचित्त में सुरक्षित ही रखना चाहिये । वाणी से ‘मैंने ब्रह्म को जान लिया’- ऐसा भी किसी के प्रति नहीं कहना चाहिये । क्योंकि ऐसा कहने से अहंकार द्योतित होता है । वास्तविकता यह है कि ब्रह्म को पूर्णतया कोई नहीं जान पाया । 
(क्रमशः)

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