रविवार, 5 जनवरी 2020

= १४७ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग मारू(मारवा) ७, (गायन समय साँयकाल ६ से ९ रात्रि)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१४७ - विरह विलाप । पँजाबी त्रिताल
कबहूं ऐसा विरह उपावे रै, 
पिव बिन देखे जिव जावै रे ॥टेक॥
विपति हमारी सुनहु सहेली, 
पिव बिन चैन न आवै रे ।
ज्यों जल भिन्न मीन तन तलफै, 
पिव बिन वजS बिहावै रे ॥१॥
ऐसी प्रीति प्रेम की लागै, 
ज्यों पँखी पीव सुनावै रे ।
त्यों मन मेरा रहे निश वासर, 
कोइ पिव को आण मि लावै रे ॥२॥
तो मन मेरा धीरज धरही, 
कोइ आगम आण जनावै रे ।
तो सुख जीव दादू का पावै, 
पल पिवजी आप दिखावै रे ॥३॥
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१४७ - १४८ में विरह पूर्वक विलाप कर रहे हैं, वे प्रभु कभी ऐसा विरह मेरे हृदय में उत्पन्न करेंगे ? जिससे उन प्रभु के देखे बिना जीव शरीर से निकल कर उनके पास प्रस्थान कर जायेगा । 
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हे सँत - सहेली ! तुम मेरी विपत्ति को सुनो तो सही । मुझे प्रभु बिना किंचित् भी सुख नहीं मिलता । जैसे जल से अलग होने पर मच्छी का शरीर तड़फता है, वैसे ही प्रभु के बिना मेरा समय विरह - वज्रघात दु:ख से तड़फते हुये ही जाता है । 
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मेरे हृदय में प्रभु की ऐसी प्रीति लगी है, जैसे चातक को स्वाति बिन्दु के प्रेम की लग्न लगती है, वह पीव २ बोलता रहता है, वैसे ही मेरा मन रात्रि - दिन पीव २ पुकारता रहता है । 
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कोई आकर भविष्य में प्रभु के आने के निश्चित समय की बात मुझे बतावे तो मेरा मन धैर्य रख सकता है । कोई प्रभु को लाकर मुझ से मिला दे और प्रभुजी मुझे प्रति क्षण अपना स्वरूप दिखाते रहें, तब ही मेरा मन परमानन्द प्राप्त करेगा ।
(क्रमशः)

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