रविवार, 5 जनवरी 2020

= *सुकृत का अंग ९५(१३७/१४०)* =

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन अंध ।*
*दादू मुक्ता छाड़ कर, गल में घाल्या फंद ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सुकृत का अंग ९५*
हाली छूटै भोग१ भरि, क्षत्री सह शिर धार । 
जती२ सती३ सीझै४ सु यूं, रज्जब समझ विचार ॥१३७॥ 
हाली हासिल१ देकर छूटता है, क्षत्रिय तलवार की धार शिर पर सहन करके छूटता है, वैसे ही गृहस्थ३ पुण्य करके मुक्त होता है और साधू२ भजन करके मुक्त४ होता है । यह विचार द्वारा तुम स्वयं समझ सकते हो । 
करसा१ सती२ जती३ रजपूत४, 
उभय राम राज आगे भय भूत५ । 
गृही जु भोग६ भरै भंडार, 
वैरागी७ खाय शीश उतार ॥१३८॥ 
किसान१ और राजपूत दोनों राजा के आगे भयभीत रहते हैं । इससे किसान हासिल६ देकर राजा का भण्डार भरता है और राजपूत४ शिर उतार कर अर्थात युद्ध करके खाता है, वैसे ही सदगृहस्थ२ और साधू३ दोनों राम के आगे भयभीत५ रहते हैं, सदगृहस्थ भोग संग्रह करके पुण्य करता है और विरक्त७ भजन द्वारा अभिमान नष्ट करके खाता है । भयभीत के स्थान में भय, भूत और राजपूत के साथ अनुप्रास के लिये दिया है । 
गाड़ी गांठि गिली१ गई, गाफिल२ काया साथ । 
रज्जब रिधि३ तेती रही, जु हरि हित खरची हाथ ॥१३९॥ 
जो माया३ पृथ्वी में गाड़ी जाती है और गांठ बांध कर रक्खी जाती है, यह तो हे असावधान२ ! तेरे शरीर के छूटने के साथ ही यहीं रह जाती है और उसे दूसरे ही खाते१ हैं । तेरे लिये तो वही आगे तैयार रहती है जो हरि के लिये तूने अपने हाथ से खर्च करी है । 
रज्जब आतम अवनि पर, बाणी वर्षा होय । 
उभय अँकूर न भास ही, तो बीज विघ्न है कोय ॥१४०॥ 
यदि पृथ्वी पर वर्षा होती है, और अँकुर नहीं निकलता तो समझना चाहिये, बीज में ही कोई खराबी रूप विघ्न है, वैसे ही जीवात्मा को संत की वाणी सुनने को मिलती है, फिर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता तो समझना चाहिये अन्त:करण मलीन है । 
(क्रमशः)

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