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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग मारू(मारवा) ७, (गायन समय साँयकाल ६ से ९ रात्रि)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१४८ - गुजराती भाषा । पँजाबी त्रिताल ।
अमे१ विरहणिया राम तुम्हारड़िया ।
तुम बिन नाथ अनाथ, काँइ२ बिसारड़िया ॥टेक॥
अपने अँग अनल परजाले, नाथ निकट नहिं आये रे ।
दर्शन कारण विरहनि व्याकुल, और न कोई भावे रे ॥१॥
आप अपरसन३ अमने४ देखे, आपणपो न दिखाड़े रे ।
प्राणी पिंजर लेइ रह्यो रे, आड़ा अंतर पाड़े रे ॥२॥
देव देव कर दर्शन मांगे, अन्तरजामी आपे रे ।
दादू विरहणि वन वन ढूंढे, यह दुख काँइ न कापे५ रे ॥३॥
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हे राम ! हम१ आपकी विरहनी हैं और नाथ ! आपके बिना हम अनाथ हो रही हैं, आप हमें क्यों२ भूलगये हैं ?
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स्वामी हमारे पास नहीं आते, इससे विरहाग्नि मेरे अँगों को विशेष रूप से जला रही है । प्रभु दर्शन के लिये मैं वियोगिनी व्याकुल हूं अन्य कोई भी मुझे अच्छा नहीं लगता ।
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प्रभु स्वयँ तो छिपे३ हुये हैं, हमको४ देखते हैं और अपना स्वरूप हमको नहीं दिखाते हैं । मैं प्राणी शरीर पिंजर को इसलिये धारण किये हूं कि वे दर्शन देंगे किन्तु आप तो उलटा दूर रहना रूप आड़ा पड़दा ही डाल रहे हैं, पास आते ही नहीं ।
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भक्त जन जब दीजिये २ कह कर दर्शन माँगते हैं तब आप अन्तरयामी होने से उनकी प्रार्थना सुन कर दर्शन देते ही हैं, फिर मैं विरहनी आपको नाना साधन रूप वन २ में खोज रही हूं, मुझे दर्शन देकर मेरा यह वियोगजन्य दु:ख क्यों नहीं काटते५ ?
(क्रमशः)
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