सोमवार, 6 जनवरी 2020

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🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग मारू(मारवा) ७, (गायन समय साँयकाल ६ से ९ रात्रि)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१४८ - गुजराती भाषा । पँजाबी त्रिताल । 
अमे१ विरहणिया राम तुम्हारड़िया । 
तुम बिन नाथ अनाथ, काँइ२ बिसारड़िया ॥टेक॥ 
अपने अँग अनल परजाले, नाथ निकट नहिं आये रे । 
दर्शन कारण विरहनि व्याकुल, और न कोई भावे रे ॥१॥ 
आप अपरसन३ अमने४ देखे, आपणपो न दिखाड़े रे । 
प्राणी पिंजर लेइ रह्यो रे, आड़ा अंतर पाड़े रे ॥२॥ 
देव देव कर दर्शन मांगे, अन्तरजामी आपे रे । 
दादू विरहणि वन वन ढूंढे, यह दुख काँइ न कापे५ रे ॥३॥
हे राम ! हम१ आपकी विरहनी हैं और नाथ ! आपके बिना हम अनाथ हो रही हैं, आप हमें क्यों२ भूलगये हैं ? 
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स्वामी हमारे पास नहीं आते, इससे विरहाग्नि मेरे अँगों को विशेष रूप से जला रही है । प्रभु दर्शन के लिये मैं वियोगिनी व्याकुल हूं अन्य कोई भी मुझे अच्छा नहीं लगता । 
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प्रभु स्वयँ तो छिपे३ हुये हैं, हमको४ देखते हैं और अपना स्वरूप हमको नहीं दिखाते हैं । मैं प्राणी शरीर पिंजर को इसलिये धारण किये हूं कि वे दर्शन देंगे किन्तु आप तो उलटा दूर रहना रूप आड़ा पड़दा ही डाल रहे हैं, पास आते ही नहीं । 
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भक्त जन जब दीजिये २ कह कर दर्शन माँगते हैं तब आप अन्तरयामी होने से उनकी प्रार्थना सुन कर दर्शन देते ही हैं, फिर मैं विरहनी आपको नाना साधन रूप वन २ में खोज रही हूं, मुझे दर्शन देकर मेरा यह वियोगजन्य दु:ख क्यों नहीं काटते५ ?
(क्रमशः)

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