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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग रामकली ८ (गायन समय प्रभात ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१९४ - उपदेश । प्रतिताल
हरि राम बिना सब भर्मि गये,
कोई जन तेरा साच गहै॥टेक॥
पीवे नीर तृषा तन भाजै,
ज्ञान गुरु बिन कोइ न लहै ।
प्रकट पूरा समझ न आवै,
तातैं सो जल दूर रहे ॥१॥
हर्ष शोक दोउ सम कर राखै,
एक एक के संग न बहै ।
अनतहि जाइ तहां दुख पावै,
आपहि आपा आप दहै॥२॥
आपा पर भरम सब छाड़ै,
तीन लोक पर ताहि धरै ।
सो जन सही सांच को परसै,
अमर मिलै नहिं कबहुं मरै ॥३॥
पारब्रह्म सौं प्रीति निरँतर,
राम रसायन भर पीवै ।
सदा आनँद सुखी साचे सौं,
कहै दादू सो जन जीवै ॥४॥
उपदेश कर रहे हैं - हरि, राम, आदि नामों के चिन्तन बिना सब सँसारी प्राणी भ्रमित हो रहे हैं । प्रभो ! कोई विरला भक्त ही आपके सत्य स्वरूप को पहचान कर निरन्तर नाम - चिन्तन - साधन ग्रहण करता है ।
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जैसे जल - पान करने से प्यास दूर होती है, जल बिना नहीं । वैसे ही गुरु से ज्ञान प्राप्त होता है, गुरु बिना कोई भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता और ज्ञान बिना प्रत्यक्ष रूप से पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप समझ में नहीं आता । इसीलिए साँसारिक आशा - तृष्णा रूप प्यास को मिटाने वाला वह ब्रह्म - जल प्राणी को दूर ही प्रतीत होता है ।
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जो हर्ष - शोकादि को सम रखता है अर्थात् उनके वेग को हृदय में नहीं आने देता, कभी आ भी जाय तो उनमें किसी एक - एक गुण के साथ न जाकर उनको विरोधी गुणों द्वारा नष्ट करता है क्योंकि उन - गुणों के साथ होकर जहां भी अनात्म पदार्थों में जाता है, वहां ही दु:ख प्राप्त करता है । अत: साधक को चाहिए - वह स्वयँ ही आत्म - ज्ञान द्वारा अपनी वृत्ति के अनात्म अहँकार को जलावे और...
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अपना - पराया आदि भेद जन्य सँपूर्ण भ्रम को त्याग कर त्रिगुणात्मक तीनों लोकों से परे शुद्ध चेतन में वृत्ति को रक्खे । वही जन निश्चित रूप से सत्य - स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त होता है और अमर होकर उसी में मिल जाता है, फिर कभी भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता ।
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हम यथार्थ ही कहते हैं, वह जन सत्य ब्रह्म से मिलकर ब्रह्मानन्द द्वारा सुखी हुआ सदा ब्रह्म रूप से जीवित रहता है ।
(क्रमशः)
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