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*लोहा पारस परस कर, पलटै अपणा अंग ।*
*दादू कंचन ह्वै रहै, अपने सांई संग ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ Mahant Ram Gopal Das Tapasvi
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*माया जड़ चेतन का अंग १०६*
इस अंग में माया की जड़ता चेतनता संबंधी विचार कर रहे हैं ~
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रज्जब जड़ चेतन दर्शे, गुरु ज्ञात१हुं के संग ।
लोहा पारस मृतक जीवते, परसत पलटे अंग ॥१॥
मृतकवत लोहा पारस के स्पर्श होते ही जीवित के समान अपना आकार बदल लेता है, वैसे ही ज्ञानी१ गुरुजनों के संग से जड़ माया भी चेतनवत दीखती है ।
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नर नर मादा स्थावर जंगम, विधुरे बहुरि मिलांहिं ।
यूं माया मूई जीवती देखहिं, मुनिवत नैनों माँहि ॥२॥
हीरा जाति के नग हीरा-हीरी स्थावर होने पर भी जंगम दिखाई देते हैं, बिछुड़ने पर पुन: अपने आप मिल जाते हैं । हीरा-हीरी जौहरी के पास हो और उसमें से एक खरीद लिया जाय तो हीरा जहाँ हीरी होगी वहाँ चला जाता है । ऐसे ही मरी हुई माया भी पुन: जीवित हो जाती है, यह मुनिवरों के नेत्रों में देखते हैं अर्थात उनके मन की माया मर जाने पर भी नेत्रों से माया का व्यक्त रूप देखने से पुन: जीवित हो जाती है, वा विचार नेत्रों से ही उसे जीवित ही देखते हैं ।
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हाथा जोड़ी मूसल मेलै, चुंबक सूई चलावै ।
जन रज्जब जड़ चेतन दीस हिं, जे सतगुरु दिखलावे ॥३॥
मूसल हाथों की जोड़ी मिला देता है अर्थात मूसल से कूटने का काम करते समय दोनों हाथ आकर मिल जाते हैं । चुंबक पत्थर सुई को चंचल कर देता है, वैसे ही यदि सदगुरु दिखावें तो जड़ भी चेतन रूप दिखते हैं ।
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रज्जब वसुधा१ बीज जड़, मिलतों चेतन होय ।
तो दीसें सब जीवते, मूवा नांहि कोय ॥४॥
पृथ्वी१ और बीज दोनों जड़ हैं किन्तु मिलने पर दोनों ही चेतन हो जाते हैं । पृथ्वी बीज को निकालने के लिये अवकाश देती है और बीज से अंकुर निकलता है ये काम चेतन बिना कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार सभी जीवित दिखाई देते हैं, कोई भी मरा हुआ नहीं है ।
(क्रमशः)
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