शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ८०/८३

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥पतिव्रत॥* 
*दादू दूजा कुछ नहीं, एक सत्य कर जान ।* 
*दादू दूजा क्या करै, जिन एक लिया पहचान ॥८०॥* 
तत्व ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है । इससे भिन्न जो ज्ञान है, वह मिथ्याज्ञान होने से अज्ञान ही है । इस विषय में वैदिक दृष्टान्त प्रमाणरूप से दिया जाता है । 
हे सौम्य ! एक मृत्पिण्ड को जान लेने से सब कुछ मिट्टी से बनने वाले मृन्मय पात्र जाने जाते हैं । जितना भी नामधेय है वह सब वाणी का विकार है । मिट्टी ही सत्य है । इसका भाव यह है कि जो यह मृत्पिण्ड है, यह परमार्थ से मिट्टी ही है । इस प्रकार मृदात्मरूप से जान लेने पर सब मृन्मय घट शराब उदञ्चन आदि मृण्मय जान लिये जाते हैं । क्योंकि मिट्टी रूप होने से मिट्टी के अलावा उनमें कोई विशेषता नहीं दीखती । क्योंकि सब नाम ध्येय वाणी का विकार है । अर्थात् वाणी ही घट शराब उदञ्चन आदि से विकार को प्राप्त हो रही है । वस्तुतः विकार नाम का कोई पदार्थ है नहीं । किन्तु नामध्येयमात्र मिथ्या है, केवल मिट्टी ही सत्य है । यह दृष्टान्त ब्रह्म की सत्यता में दिया जाता है । दार्ष्टांत भी ब्रह्म से भिन्न जितना भी कार्य है उसका अभाव ही ब्रह्म में प्रतीत होता है । अन्य श्रुतियों में भी ब्रह्म का एकत्व प्रतिपादन किया हुआ है । जैसे यह सब आत्मा ही है । वही सत्य है । जो सत्य है, वही आत्मा है । हे जीव तू ब्रह्मस्वरूप है । जो कुछ है वह आत्मा है । आत्मा ही सब कुछ है ब्रह्म ही सब कुछ है । जो नानात्व प्रतीत हो रहा है, वह मिथ्या है, इन सब श्रुतियों से आत्मा का एकत्व सत्यत्व प्रतिपादन किया गया है । इस प्रकार जिस जिज्ञासु ने भोग्य भोक्ता आदि सकल प्रपञ्च का ब्रह्म से अतिरिक्त मिथ्यात्व जान लिया, उसको द्वैत से क्या प्रयोजन है । 
*दादू कोई वांछै मुक्ति फल, कोइ अमरापुर वास ।* 
*कोई वांछै परमगति, दादू राम मिलन की प्यास ॥८१॥* 
कितने ही साधक भक्त सालोक्य सामीप्य सायुज्य सारुप्य नामक चार मुक्तियों को चाहते हैं । कितने ही स्वर्गीय सुख की कामना करते हैं, कितने ही परम गति को प्राप्त करके अपने को सुखी मानते हैं । किन्तु श्री दादूजी महाराज तो दर्शन की अभिलाषा के कारण दर्शन ही चाहते हैं, अन्य कुछ नहीं । भगवत्प्रिय भक्तों का यही लक्षण कहा है कि- 
“जिसने अपने मन और आत्मा को भगवान् में लगा रखा है वह भक्त ब्रह्मलोक प्राप्त होने पर भी उसको नहीं चाहता, न इन्द्र का साम्राज्य स्वर्ग को, न पृथ्वी पर सार्वभौम राज्य, न पाताल का राज्य, न योगजन्य ऋद्धि सिद्धियों को, न मोक्ष को चाहता है । किन्तु सदा दर्शन ही चाहता है । वह ही भगवान् का परमप्रिय भक्त होता है ।” 
*तुम हरि हिरदै हेत सौं, प्रगटहु परमानन्द ।* 
*दादू देखै नैन भर, तब केता होइ आनन्द ॥८२॥* 
मैं साधन विहीन हूं और आप भक्तवत्सल हैं । अतः हरे ! आप ही कृपा करके मेरे हृदय में रहते हुए भी बाहर प्रकट होकर दर्शन दीजिये । जिससे आपको बार-बार देखकर दर्शानन्द से तृप्त हो जाऊं । अहो ! जब आप प्रकट होकर दर्शन देंगे तब मुझे असीम आनन्द की प्राप्ति हो जायगी । भक्तिरसायन में लिखा है की- 
“हे कृष्ण जो महात्मा लोग आपके दर्शनों के लिये योग साधना करते हैं, उनको आपका प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है । यह वाणी सम्भव है, कुछ अर्थ रखती हो । लेकिन हम तो इस बात को बिलकुल मिथ्या मानती हैं, क्योंकि हमारा मन आपके संयोग में आसक्त हो रहा है, फिर भी आपके पवित्र दर्शन गोपियों को जो नहीं हो रहा है । अतः आप की वाणी बिलकुल मिथ्या है, क्योंकि योग की अपेक्षा संयोग का महत्व ज्यादा है ।” 
*प्रेम पियाला राम रस, हमको भावै येहि ।* 
*रिधि सिधि मांगैं मुक्ति फल, चाहैं तिनको देहि ॥८३॥* 
मैं तो प्रेम का प्यासा हूं, अतः हे भगवान् ! आप प्रेम से अपना निज रस(भक्ति रस) पिलाइये । मैं मुक्ति फल ऋद्धि सिद्धियों से प्राप्त होने वाला सुख भी नहीं चाहता हूँ । जो इनको चाहते हैं आप उनको दीजिये । मेरे को तो आप अपना प्रेम पिलाइये । क्योंकि जिसको जो प्रिय होता है, उसकी प्राप्ति से वह सुखी होता है । 
(क्रमशः)

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