शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

*माया का अंग १०७*(९/१२)* =

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*माया फाँसी हाथ ले, बैठी गोप छिपाहि ।*
*जे कोई धीजे प्राणियां, ताही के गल बाहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ Mahant Ram Gopal Das Tapasvi
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*माया का अंग १०७*
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धर१ धामन२ यहु पुरुष गति, सोवन३ सुत उनसार४ । 
रज्जब जातक५ जार के, भरमी भूलि भरतार ॥९॥
पृथ्वी१ तथा घर२ आदि पुरुष के समान हैं और सुवर्ण३ पुत्र के समान४ है, जीवात्मा रूप नारी उस जार पुत्र५ के मोह-वश भ्रम में पड़कर अपने स्वामी परब्रह्म को भूल गई है । 
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माया मारै मीच१ ह्वै, बिन बांछी२ ही आय । 
रज्जब सिध साधक डसे, सो टाली नहिं जाय ॥१०॥
माया बिना ईच्छा१ भी आती है और मृत्यु२ होकर मारती है । साधक तथा सिद्धों को भी सर्पणी के समान डसती है, वह किसी भी प्रकार टाली नहीं जाती । 
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जो माया मुनिवर गिलै१, सिध साधक से खाय । 
ता माया सौं हेत करि, रज्जब क्यों पतियाय२ ॥११॥
जो मुनियों में श्रेष्ठ हैं, उनको भी माया निगल१ जाती है, सिद्ध साधकों को भी खाती है, उस माया से प्रेम करके सुखी होने का विश्वास२ क्यों करता है ?
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एक गये नट नाचि करि, एक कछे१ अब आय । 
जन रज्जब इक आयसी, बाजी रची खुदाय ॥१२॥
जसे नाटय शाला में एक नट नाचकर जाता है, एक स्वांग१ बनाकर अब आया है और एक आगे आयेगा, वैसे ही ईश्वर रूप बाजीगर ने यह संसार-माया रूप बाजी रची है, इसमें एक जन्म कर मर रहा है एक जन्म रहा है और एक आगे जन्मेगा ।
(क्रमशः)

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