गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

*गृहस्थ तथा संन्यास*

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*अति गति आतुर मिलन को, जैसे जल बिन मीन ।*
*सो देखे दीदार को, दादू आतम लीन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत {श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*संसारार्णवघोरे यः कर्णधारस्वरुपकः ।*
*नमोऽस्ते रामकृष्णाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥*
मास्टर(विनीत भाव से)- ईश्वर में मन कैसे लगे?
श्रीरामकृष्ण- सर्वदा ईश्वर का नाम-गुणगान करना चाहिए, सत्संग करना चाहिए-बीच बीच में भक्तों और साधुओं से मिलना चाहिये । संसार में दिनरात विषय के भीतर पड़े रहने से मन ईश्वर में नहीं लगता । कभी कभी निर्जन स्थान में जाकर ईश्वर की चिन्ता करना बहुत जरुरी है । प्रथम अवस्था में बीच बीच में एकांतवास किए बिना ईश्वर में मन लगाना बड़ा कठिन है ।
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“पौधे को चारों ओर से रूँधना पड़ता है, नहीं तो बकरी चर लेगी ।
ध्यान करना चाहिए मन में, कोने में और वन में । और सर्वदा सत्-असत् विचार करना चाहिये । ईश्वर ही सत् अथवा नित्य वस्तु है, और सब असत्, अनित्य । बारंबार इस प्रकार विचार करते हुए मन से अनित्य वस्तुओं का त्याग करना चाहिए ।”
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*गृहस्थ तथा संन्यास ~ उपाय-निर्जन में साधना*
मास्टर(विनीत भाव से)- संसार में किस तरह रहना चाहिए?
श्रीरामकृष्ण- सब काम करना चाहिए परन्तु मन ईश्वर में रखना चाहिए । माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि सब के साथ रहते हुए सब की सेवा करनी चाहिए परन्तु मन में इस ज्ञान को दृढ़ रखना चाहिए कि ये हमारे कोई नहीं हैं ।
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“किसी धनी के घर की दासी उसके घर का कुल काम करती है, किन्तु उसका मन अपने गाँव के घर पर लगा रहता है । मालिक के लड़कों का वह अपने लड़कों की तरह लालन-पालन करती है, उन्हें ‘मेरा मुन्ना’, ‘मेरा राजा’ कहती है, पर मन ही मन खूब जानती है कि ये मेरे कोई नहीं हैं ।”
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“कछुआ रहता तो पानी में है, पर उसका मन रहता है किनारे पर जहाँ उसके अण्डे रखे हैं । संसार का काम करो, पर मन रखो ईश्वर में । बिना भगवद्-भक्ति पाए यदि संसार में रहोगे तो दिनोंदिन उलझनों में फँसते जाओगे और यहाँ तक फँस जाओगे कि फिर पिण्ड छुड़ाना कठिन होगा । रोग, शोक, तापादि से अधीर हो जाओगे । विषय-चिन्तन जितना ही करोगे, आसक्ति भी उतनी ही अधिक बढ़ेगी ।
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“हाथों में तेल लगाकर कटहल काटना चाहिए । नहीं तो, हाथों में उसका दूध चिपक जाता है । भगवद्-भक्तिरूपी तेल हाथों में लगाकर संसाररूपी कटहल के लिए हाथ बढ़ाओ ।
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“परन्तु यदि भक्ति पाने की इच्छा हो तो निर्जन में रहना होगा । मक्खन खाने की इच्छा हो, तो दही निर्जन में ही जमाया जाता है । हिलाने-डुलाने से दही नहीं जमता । इसके बाद निर्जन में ही सब काम छोड़कर दही मथा जाता है, तभी मक्खन निकलता है ।” 
“देखो, निर्जन में ही ईश्वर का चिन्तन करने से यह मन भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का अधिकारी होता है । इस मन को यदि संसार में डाल रखोगे तो यह नीच हो जायगा । संसार में कामिनी-कांचन के चिन्तन के सिवा और है ही क्या ?”
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“संसार जल है और मन मानो दूध । यदि पानी में डाल दोगे तो दूध पानी में मिल जाएगा, पर उसी दूध का निर्जन में मक्खन बनाकर यदि पानी में छोड़ेगे तो मक्खन पानी में उतराता रहेगा । इस प्रकार निर्जन में साधना द्वारा ज्ञान-भक्ति प्राप्त करके यदि संसार में रहोगे भी तो संसार से निर्लिप्त रहोगे ।”
“साथ ही साथ विचार भी खूब करना चाहिए । कामिनी और कांचन अनित्य हैं, एकमात्र ईश्वर ही नित्य हैं । रुपये से क्या मिलता है? रोटी, दाल, कपड़े, रहने की जगह- बस यहीं तक । रुपये से ईश्वर नहीं मिलते । तो रुपये जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता । इसी को विचार कहते हैं- समझे?”
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मास्टर- जी हाँ, अभी अभी मैंने ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ नाटक पढ़ा है । उसमें ‘वस्तु-विचार’ है ।
श्रीरामकृष्ण- हाँ, वस्तु-विचार ! देखो, रुपये में ही क्या है और सुन्दरी की देह में भी क्या है । विचार करो, सुन्दरी की देह में केवल हाड़, मांस, चरबी, मल, मूत्र-यही सब है । ईश्वर को छोड़ इन्हीं वस्तुओं में मनुष्य मन क्यों लगाता है? क्यों वह ईश्वर को भूल जाता है?
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*ईश्वर-दर्शन के उपाय*
मास्टर - क्या ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं?
श्रीरामकृष्ण- हाँ, हो सकते हैं । बीच बीच में एकान्तवास, उनका नाम-गुणगान और वस्तु-विचार करने से ईश्वर के दर्शन होते हैं ।
मास्टर- कैसी अवस्था हो तो ईश्वर के दर्शन हों? 
श्रीरामकृष्ण- खूब व्याकुल होकर रोने से उनके दर्शन होते हैं । स्त्री या लड़के के लिए लोग आंसूओं की धारा बहाते हैं, रुपये के लिए रोते हुए आँखें लाल कर लेते हैं, पर ईश्वर के लिए कोई कब रोता है? ईश्वर को व्याकुल होकर पुकारना चाहिए ।
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यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे-
(भावार्थ)-“मन, तू सच्ची व्याकुलता के साथ पुकारकर तो देख । भला देखें, वह श्यामा बिना सुने कैसे रह सकती हैं । तुझे यदि माँ काली के दर्शन की अत्यन्त तीव्र इच्छा हो तो जवापुष्प और बिल्वपत्र लेकर उन्हें भक्तिचन्दन से लिप्त कर माँ के चरणों में पुष्पांजलि दे ।”
“व्याकुलता हुई कि मानो आसमान पर सुबह की ललाई छा गयी । शीघ्र ही सूर्य भगवान् निकलते हैं, व्याकुलता के बाद ही भगवद्दर्शन होते हैं ।”
“विषय पर विषयी की, पुत्र पर माता की और पति पर सती की- यह तीन प्रकार की चाह एकत्रित होकर जब ईश्वर की ओर मुड़ती है तभी ईश्वर मिलते हैं ।”
“बात यह है कि ईश्वर को प्यार करना चाहिए । विषय पर विषयी की, पुत्र पर माता की और पति पर सती को जो प्रीति है, उसे एकत्रित करने से जितनी प्रीति होती है, उतनी ही प्रीति से ईश्वर को बुलाने से उस प्रेम का महा आकर्षण ईश्वर को खींच लाता है ।”
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“व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । बिल्ली का बच्चा ‘मिऊँ-मिऊँ’ करके माँ को पुकारता भर है । उसकी माँ जहाँ उसे रखती, वहीँ वह रहता है- कभी राख की ढेरी पर कभी जमीन पर, तो कभी बिछौने पर । यदि उसे कष्ट होता है तो बस वह ‘मिऊँ-मिऊँ’ करता है और कुछ नहीं जानता । माँ चाहे जहाँ रहे ‘मिऊँ-मिऊँ’ सुनकर आ जाती है ।”
(क्रमशः)

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