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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग आसावरी ९ (गायन समय प्रात: ६ से ९)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२१५ - चतुष्ताल
हरि केवल एक अधारा,
सोई तारण तिरण हमारा ॥टेक॥
ना मैं पँडित पढ़ गुण जानूँ,
ना कुछ ज्ञान विचारा ।
ना मैं अगमी ज्योतिष जानूँ,
ना मुझ रूप सिंगारा ॥१॥
ना तप मेरे इन्द्री निग्रह,
ना कुछ तीरथ फिरणा ।
देवल पूजा मेरे नाहीं,
ध्यान कछू नहिं धरणा ॥२॥
जोग जुगति कछू नहिं मेरे,
ना मैं साधन जानूँ ।
औषधि मूली मेरे नाँहीं,
ना मैं देश बखानूँ ॥३॥
मैं तो और कछू नहिं जानूँ,
कहो और क्या कीजै ।
दादू एक गलित गोविन्द सौं,
इहि विधि प्राण पतीजै ॥४॥
जो तिरने वालों को भी तारने वाले हैं वे हरि ही एक मात्र हमारे आश्रय हैं ।
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न मैं पढ़ना - गुणना जानने वाला पँडित हूं, न मुझ में कुछ ज्ञान - विचार ही है । न मैं भविष्य की बात कहने वाला हूं, न ज्योतिष ही जानता हूं । न मुझे नाना प्रकार के रूप बनाना और श्रृंगार करना ही आता है ।
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न मैंने इन्द्रिय - निग्रहादिक तप ही किये हैं, न मैंने तीर्थों में ही कुछ भ्रमण किया है । न मेरे द्वारा देव - मंदिरों की पूजा हो सकी है, न कुछ ध्यान ही करता हूं,
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न मेरे को कुछ योग - युक्ति ही आती है और न मैं कोई साधन ही जानता हूं । न मेरे पास जड़ी - बूँटी आदि औषधि ही है, न मैं देशान्तरों की कथाएँ कहता हूं ।
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मैं तो अन्य कुछ भी नहीं जानता और आप ही कहें क्या किया जाय ? मैं तो एक गोविन्द के प्रेम रस में गला हुआ हूं । इसी प्रकार प्रेमाभक्ति में रत होने पर ही मेरे मन को प्रभु प्राप्ति का विश्वास होता है ।
(क्रमशः)
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