सोमवार, 2 मार्च 2020

*३०. दिग्विजयी का वैराग्य*

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*दिन दिन लहुड़े होंहि सब, कहैं मोटा होता जाइ ।*
*दादू दिन दिन ते बढ़ैं, जे रहैं राम ल्यौ लाइ ॥*
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*३०. दिग्विजयी का वैराग्य*
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उस समय गौर गंगा-स्नान करके तुलसी में जल दे रहे थे। सहसा दिग्विजयी पण्डित को सादे वेश में अकेले ही अपने घर की ओर आते देख उन्होंने दौड़कर उनका स्वागत किया। दिग्विजयी आते ही प्रभु के चरणों में गिर गये।
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प्रभु ने जल्दी से उन्हें उठाकर छाती से लगाते हुए कहा- ‘हैं हैं, महाराज ! यह आप कर क्या रहे हैं? मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ। आप जगत-पूज्य हैं, आप ऐसा करे मुझ पर पाप क्यों चढ़ा रहे हैं? आप मुझे आशीर्वाद दीजिये, आप ही मेरे पूजनीय और परम माननीय हैं।’
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गद्गद-कण्ठ से दिग्विजयी ने कहा- ‘प्रभो ! मान-प्रतिष्ठा की भयंकर अग्नि में दग्ध हुए इस पापी को और अधिक सन्ताप न पहुँचाइये। इस प्रतिष्ठारूपी सूकरी-विष्ठा को खाते-खाते पतित हुए इस नारकीय को और अधिक पतित न बनाइये। अब मेरा उद्धार कीजिये।’ प्रभु उनका हाथ पकड़कर भीतर ले गये और बड़े सत्कार से उन्हें बिठाकर कहने लगे- ‘आपने यह क्या किया, पैदल ही यहाँ तक कष्ट किया, मुझे आज्ञा भेज देते तो मैं स्वयं ही आपके डेरे पर उपस्थित होता।
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मालूम होता है, आप मुझे सम्मान प्रदान करने और मेरी टूटी-फूटी कुटिया को पवित्र करने के ही निमित्त यहाँ पधारे हैं। इसे मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ। आज यह घर पवित्र हुआ। मेरी विद्या सफल हुई जो आप ऐसे महापुरुषों के चरण यहाँ पधारे।’
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दिग्विजयी पण्डित नीचे सिर किये चुपचाप प्रभु की बातें सुन रहे थे। वे कुछ भी नहीं बोलते थे। इसलिये प्रभु ने धीरे-धीरे फिर कहना प्रारम्भ किया- ‘कल मुझे पीछे से बड़ी लज्जा आयी। मैंने व्यर्थ में ही कुछ कहकर आपके सामने धृष्टता की, आप कुछ और न समझें। आपने सुना ही होगा, मेरा स्वभाव बड़ा ही चंचल है। जब मैं कुछ कहने लगता हूँ तो आगे-पीछे की सब बातें भूल जाता हूँ। बस, फिर बकने ही लगता हूँ ! छोटे-बड़े का ध्यान ही नहीं रहता। इसी कारण कल कुछ अनुचित बातें मेरे मुख से निकल गयी हों तो उनके लिये मै। आपसे क्षमा चाहता हूँ।’
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'दिग्विजयी ने अधीर होकर कहा- ‘प्रभो ! अब मुझे अधिक वंचित न कीजिये। मुझे सरस्वती देवी ने रात्रि में सब बातें बता दी हैं, अब मेरे उद्धार का उपाय बताइये।’ प्रभु ने कहा- ‘आप कैसी बातें कह रहे हैं? आप शास्त्रों के मर्म को भलीभाँति जानते हैं, फिर भी मुझे सम्मान देने की दृष्टि से आप पूछते ही हैं, तो मैं निवेदन करता हूँ।
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असल में मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य तो उसी को समझना चाहिये जिसके द्वारा प्रभु के पाद-पद्मों में प्रगाढ़ प्रीति उत्पन्न हो। यह जो आप हाथी-घोड़ों को साथ लिये घूम रहे हैं, यह भी ठीक ही है, किन्तु इनसे संसारी भोगों की ही प्राप्ति हो सकती है। भगवत-प्राप्ति में ये बातें कारण नहीं बन सकतीं। आप तो सब जानते ही हैं-
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्।
विदुषामिह वैदुष्यं भुक्तये न तु मुक्तये॥
अर्थात् सुन्दर सुललित सौष्ठवयुक्त धाराप्रवाह वाणी और बढ़िया व्याख्यान देने की युक्ति ये सब मनुष्य को संसारी भोगों की ही प्राप्ति करा सकती हैं। इनके द्वारा मुक्ति अर्थात प्रभु के पाद-पद्मों की प्राप्ति नहीं हो सकती। संसारी प्रतिष्ठा का महत्त्व ही क्या है? जो चीज आज है और कल नहीं है, उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है।
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महाराज भर्तृहरि ने इस बात को भलीभाँति समझा था। वे स्वयं राजा थे, सब प्रकार के मान-सम्मान और संसारी भोग-पदार्थ उन्हें प्राप्त थे। उनकी राजसभा में बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वान दूर-दूर से नित्यप्रति आया ही करते थे। इसीलिये उन्हें इन सब बातों का खूब अनुभव था, वे सब जानते थे कि इतने भारी-भारी विद्वान इज्जत-प्रतिष्ठा और अनित्य तथा दुःख का मुख्य हेतु बताने वाले धन के किस प्रकार कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते रहते हैं।
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इन्हीं सब कारणों से उन्हें परम वैराग्य हुआ। और उन्होंने अपने परम अनुभव की बात इस एक ही श्लोक में बता दी है-
किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः
स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं
स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः॥[१]
श्रीभर्तृहरि वै. श. ८१
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इन श्रुति, स्मृति, पुराण और बड़े विस्तार के साथ शास्त्रों के ही पठन-पाठन में जिन्दगी को लगाये रहने से क्या होता है। बस इनसे स्वर्गरूपी ग्राम में एक कुटी बनाकर भोगों को भोगने का ही अवसर मिल जाता है। इस कर्मकाण्ड के क्रिया-कलापों में कालयापन करने से क्या लाभ? जो इस दुःख रचना से युक्त संसार-बन्धन को विध्वंस करने में प्रलयाग्नि के समान तेजोमय हैं ऐसे प्रभु के पाद-पद्मों को नैरन्तर्य भाव से सेवन करते रहने के अतिरिक्त ये सभी कार्य वैश्यों के-से व्यापार हैं। एक चीज को देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना है। असली वस्तु तो प्रभु की प्राप्ति ही है। उसी के लिये उद्योग करना चाहिये।’
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दिग्विजयी ने कहा- ‘अब आप हमें हमारा कर्तव्य बता दीजिये। ऐसी हालत में हमें क्या करना चाहिये। अब इन वणिक-व्यापार से तो एकदम घृणा हो गयी है।’ प्रभु ने हँसते हुए कहा- ‘आप शास्त्रज्ञ हैं, सब कुछ जानते हैं। शास्त्र में सभी विषय भरे पड़े हैं, आपसे कोई विषय छिपा थोड़े ही है, किन्तु हाँ, इसे मैं आपका परम सौभाग्य ही समझता हूँ कि इतनी बड़ी भारी प्रतिष्ठा से आपको एकदम वैराग्य हो गया है, लोग पुत्रैषणा और वित्तैषणा को तो छोड़ भी सकते हैं, किन्तु लोकैषणा इतनी प्रबल होती है कि बड़े-बड़े महापुरुष भी इसे छोड़ने में पूर्ण रीति से समर्थ नहीं होते।
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श्रीहरि भगवान की आपके ऊपर यह परम असीम कृपा ही समझनी चाहिये कि आपको इसकी ओर से भी वैराग्य हो गया। मैं तो परमसुखस्वरूप प्रभु की प्राप्ति में इसे ही मुख्य समझता हूँ। मैंने तो इस श्लोक को ही कर्तव्यता का मूलमन्त्र समझ रखा है-
धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्
सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम्।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु त्यक्त्वा
सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्॥[२]
श्रीमद्भा. माहात्म्य ४/८०
धर्म का आचरण करो और विषयवासनारूपी जो लोकधर्म हैं उन्हें छोड़ दो। सत्पुरुषों का निरन्तर संग करो और हृदय से भोगों की इच्छा को निकालकर बाहर फेंक दो।
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दूसरों के गुण-दोषों का चिन्तन करना एकदम त्याग दो। श्रीहरि की सेवा-कथारूपी जो रसायन है उसका निरन्तर पान करते रहो। बस, इसी को मैंने तो मनुष्यमात्र का कर्तव्य समझा है। इसके अतिरिक्त आपने जो समझा हो, उसे कृपा करके मुझे बताइये।’ श्रीमद्भागवत के माहात्म्य का यह श्लोक केशव पण्डित ने अनेक बार पढ़ा होगा और उसका प्रयोग भी हजारों बार अपने व्याख्यानों में किया होगा, किन्तु वे इसका असली अर्थ तो आज ही समझे।
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उनके कानों में यह पद-
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु त्यक्त्वा।
सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्॥
-बार-बार गूँजने लगा। प्रभु की आज्ञा लेकर और उनके उपदेश को ग्रहण करके दिग्विजयी पण्डित अपने डेरे पर आये। उनके पास जितने हाथी, घोड़े तथा अन्य साज-बाज के सामान थे, वे सभी उन्होंने उसी समय लोगों को बाँट दिये और अपने सभी साथियों को विदा करके वे भगवत-चिन्तन के निमित्त कहीं चले गये।
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इनका फिर पीछे किसी को पता नहीं चला। दिग्विजयी के पराभव से सभी लोग निमाई पण्डित की बड़ी प्रशंसा करने लगे और सभी पण्डितों ने मिलकर उन्हें ‘वादिसिंह’ की उपाधि प्रदान करना चाहा। इस प्रकार निमाई पण्डित की ख्याति और भी अधिक फैल गयी और उनकी पाठशाला में अब पहले से बहुत अधिक छात्र पढ़ने के लिये आने लगे।
(क्रमशः)

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