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*तब हंसा मन आनंद होइ,*
*वस्तु अगोचर लखै रे सोइ ।*
*जा को हरि लखावै आप,*
*ताहि न लिपैं पुन्य न पाप ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. ४०५)
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*३१. सर्वप्रिय निमाई*
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यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥[१]
([१] जिसे देखकर लोगों के मन में किसी प्रकार का भय या डर नहीं होता और जो दूसरों से भी किसी प्रकार की शंका नहीं करता, उनके सामने निर्भीकता के साथ बर्ताव करता है। जिसके लिये प्रसन्नता और अप्रसन्नता दोनों ही समान हैं, वह संसारी मनुष्य कभी हो ही नहीं सकता। वह तो भगवान का अत्यन्त ही प्रिय नित्य शुद्ध मुक्तस्वरूप है। गीता १२/१५)
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न तो बाह्य सौन्दर्य ही सौन्दर्य है और न बाह्य पवित्रता ही असली पवित्रता है। जिसका हृदय शुद्ध है, उसमें तनिक भी विकार नहीं है तो वह बदसूरत होने पर भी सुन्दर प्रतीत होता है, लोग उसके आन्तरिक सौन्दर्य के कारण उस पर मुग्ध हो जाते हैं और उसके इशारे पर नाचने लगते हैं।
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भीतर की पवित्रता ही चेहरे पर झलकने लगती है। उस पवित्रता में मोहकता है, इसी से लोग उनके वश में हो जाते हैं। यदि हृदय भी स्वच्छ शीशे की भाँति निर्मल हो और देह की कान्ति भी कमनीय और मनोहर हो तब तो उस देवतुल्य मनुष्य की मोहकता का कहना ही क्या है।
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फिर तो सोने में सुगन्ध ही है। ऐसा कौन सहृदय पुरुष होगा, जो ऐसे पुरुष के गुणों का प्रशंसक नहीं बन जाता। यदि ऐसा पुरुष प्रसन्नचित्त और चुलबुले स्वभाव का भी हो, तब तो सभी लोग उससे आत्मीय की भाँति स्नेह करने लगते हैं और उससे किसी भी मनुष्य को संकोच अथवा उद्वेग नहीं होता। बच्चे से लेकर बूढे़ तक उससे खिलावाड़ करने लगते हैं।
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निमाई पण्डित में उपर्युक्त सभी गुण विद्यमान थे। उनका हृदय अत्यन्त ही कोमल और बड़ा ही विशाल था, उसमें मनुष्यमात्र के ही लिये नहीं, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और ममता के भाव भरे हुए थे, उनका शरीर सुगठित, सुन्दर और शोभायुक्त था।
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वे इतने अधिक सुन्दर थे कि मनुष्य उनके सौन्दर्य को ही देखकर मोहित हो जाते थे। चेहरे पर कभी सिकुड़न ही नहीं पड़ती थी। हर समय हँसते ही रहते और साथियों को भी अपनी विनोदपूर्ण बातों से सदा हँसाते रहते थे। स्वभाव में इतना चुलबुलापन था कि छोटे-छोटे बच्चों के स्वभाव को भी मात कर देते थे। इन्हीं सब कारणों से नगर के सभी लोग इनसे आन्तरिक स्नेह रखते थे, जो भी इन्हें देख लेता वही प्रसन्नता से खिल उठता।
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सभी जानते थे, निमाई अब बालक नहीं हैं, वे नवद्वीप के एक नामी पण्डित हैं, इन्होंने शास्त्रार्थ में दिग्विजयी पण्डित को परास्त किया है, ये अपने लोकोत्तर प्रतिभा के कारण बंगाल के कोने-कोने में प्रसिद्ध हो गये हैं। सैकड़ों छात्र इनके पास विद्याध्ययन करने आते हैं, फिर भी वे उन्हें अपना एक साथी तथा प्रेमी ही समझते थे। उन लोगों को यह खयाल कभी नहीं होता था कि ये बड़े आदमी हैं, इनके साथ सम्मान और शिष्टाचार का व्यवहार करना चाहिये।
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ये यदि शिष्टाचार या सम्मान करना भी चाहें तो निमाई पण्डित उन्हें ऐसा करने का अवकाश ही कब देने वाले थे। ये उन सबसे बिना बात ही छेड़खानी करते। बड़े-बड़े लोगों से परिहास करने में नहीं चूकते थे। इनके सभी कार्य विचित्र होते और उनसे सभी को प्रसन्नता होती। ये नवद्वीप के प्रत्येक मुहल्ले में घूमते। कभी इस मुहल्ले से उस मुहल्ले में जा रहे हैं और उस मुहल्ले से इसमें। रास्ते में जो भी मिल जाता है उसी से कुछ-न-कुछ छेड़खानी करते हैं।
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बड़े लोग कहते हैं- ‘पण्डित ! अब थोड़ी गम्भीरता भी सीखनी चाहिये, हर समय लड़कपन ठीक नहीं होता। अब तुम एक गण्यमान्य पण्डित हो गये हो।’ ये झूठा आश्चर्य-सा प्रकट करते हुए कहते, ‘हाँ, सचमुच अब हमारी गणना पण्डितों में होने लगी है, हमें तो पता भी नहीं। यदि ऐसी बात है तो हम कहीं जाकर किसी से गम्भीरता जरूर सीखेंगे।’ कहने वाले बेचारे अपना-सा मुँह लेकर चले जाते। ये विद्यार्थियों के साथ हँसते-खेलते फिर उसी भाँति चले जाते।
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इनका नगर-भ्रमण बड़ा ही मनोहर होता। देखने वाले इन्हें एकटक देखते-के-देखते ही रह जाते। तपाये हुए सुवर्ण के समान सुन्दर शरीर था, उस पर एक हलकी-सी बनियायिन रहती। चैड़ी काली किनारी की नीचे तक लटकती हुई सफेद धोती के ऊपर एक हल्के-से पीले रंग की चादर ओढे़ रहते। मुख में पान की बीरी है, बाँये हाथ में पुस्तक है, दाहिने में एक हलकी-सी छड़ी है। साथ में दस-पाँच विद्यार्थी हैं, उनसे बातें करते हुए चले जा रहे हैं, बीच-बीच में कभी इधर-उधर भी देखते जाते हैं।
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किसी कपड़े वाले की दूकान को देखकर उस पर जा बैठते हैं। कपड़े वाला पूछता है- ‘कहिये महाराज ! क्या चाहिये?’ आप हँसते हुए कहते हैं- ‘जो यजमान की इच्छा, जो दे दोगे वही ले लेंगे।’ दूकानदार हँसी समझता और चुप हो जाता। कोई-कोई दूकानदार जबरदस्ती इनके सिर कपड़ा मँढ़ देता। आप उससे कहते- ‘लेने को तो हम लिये जाते हैं, किन्तु पास में पैसा नहीं है। उधार किसी से न कभी चीज ली है न लेते हैं। दामों की आशा न रखना।’ दूकानदार हाथ जोड़कर श्रद्धा के साथ कहते- ‘हमारा अहोभाग्य आप पहनेंगे, तो हमारा यह व्यवसाय भी सफल हो जायगा। यह कपड़ा और लेते जाइये। इसके किसी गरीब छात्र के वस्त्र बनवा दीजियेगा।’
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ये प्रसन्नतापूर्वक उन वस्त्रों को ले आते। कोई-कोई दूकानदार इनसे कटाक्ष भी करता- ‘पैसा पास नहीं है, कपड़े खरीदने चले हैं।’ आप हँसते हुए कहते- ‘पैसा ही पास होता तो फिर तुम्हारी ही दूकान कपड़ा खरीदने को रही थी? फिर तो जी चाहता वहीं से खरीद लाते।’ कभी किसी गरीब वस्त्र बनाने वाले के यहाँ जाते। उसका थान देखते, उससे दाम पूछते और कहते- ‘दाम तो हमारे पास है नहीं, बोलो, वैसे ही दोगे’- वह श्रद्धा के साथ कहता, ‘हाँ, ले जाइये महाराज ! आपका ही तो है।’ वे हँसते हुए चले आते।
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इनके नाना नीलाम्बर चक्रवर्ती के पास बहुत-से अहीरों के घर थे। वे दूध बेचने का व्यवसाय करते। आप उनके घरों में चले जाते और जिस अहीर को भी पाते उसी से कहते- ‘मामा ! आज दूध नहीं पिलाओगे क्या?’ वे इन्हें बड़े सत्कार से अपने घरों को ले जाते। सभी मिलकर विद्यार्थियों के सहित इनका खूब सत्कार करते। कोई ताजा दूध पिलाता। कोई दही लाकर इनके सामने रख देता और थोड़ा खा लेने का आग्रह करता। ये निस्संकोच भाव से खाने लगते।
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किसी स्त्री को देखकर कहते ‘मामी ! तेरा दही तो खट्टा है, थोड़ी चीनी डाल देती तो स्वाद बन जाता।’ यह सुनकर कोई चीनी लेने दौड़ती। चीनी घर में न होती तो गुड़ ही ले आती। ये हँसते-हँसते गुड़ के साथ दही पीने लगते। विद्यार्थियों को भी दूध-दही पिलाते और फिर हँसते-हँसते पाठशाला की ओर चले आते।
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विशेषकर ये सीधे-सादे वैष्णवों को और सरल स्वभाव वाले दूकानदारों को खूब छेड़ते। दूकानदारों को भी इनके साथ छेड़खानी करने में आनन्द आता। एक पान वाले से इनका सदा झगड़ा ही बना रहता। ये उससे मुफ्त ही पान माँगा करते और वह मुफ्त देने से इनकार किया करता। तब ये अपने हाथ से ही उठा लेते। पान वाला हँस पड़ता, ये तब तक पान को चट कर जाते।
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पान वाले को ऐसा करने में नित्य नया ही आनन्द प्रतीत होता था, अतः यह झगड़ा प्रायः रोज ही हुआ करता। कभी तो दिन में दो-दो, तीन-तीन बार हो जाता। पान वाला बड़ा ही सरल और कोमल प्रकृति का पुरुष था। वह इन्हें पुत्र की तरह मन-ही-मन चाहता था।
(क्रमशः)
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