सोमवार, 2 मार्च 2020

*३०. दिग्विजयी का वैराग्य*

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*कहतां सुनतां दिन गये, ह्वै कछू न आवा ।*
*दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछतावा ॥*
================
.
*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
.
*३०. दिग्विजयी का वैराग्य*
.
भोगे रोगभयं कुले च्तुतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्॥[१]
([१] भोग में रोग का भय है, कुछ बढ़ने से उसके च्युत होने का भय है, अधिक धन होने में उससे राजभय है, मौन होने में दीनता का भय है, बल में शत्रु का भय है, रूप में वृद्धावस्था का भय है, शास्त्राभ्यास में वाद-विवाद में हार जाने का भय है, गुणों में दुष्टों का भय है, शरीर में उसके नष्ट हो जाने का भय है, संसार के यावत पदार्थ सभी भय से भरे पड़े हैं। बस, एक वैराग्य ही भय से रहित है। वैराग्य में किसी का भी भय नहीं। भर्तृहरि वै. श. ३५)
.
जिसकी जिह्वा ने मिश्री का रसास्वादन नहीं किया है, वही लौटा अथवा सीरा में सुख का अनुभव करेगा। जिस स्थान में गुड़ से चीनी या शक्कर बनायी जाती है, उसके बाहर एक बड़ा-सा कुण्ड होता है, उसमें गुड़ का सम्पूर्ण काला-काला मैल छन-छनकर आता है। दूकानदार उस मैल को कारखाने में से सस्ते दामों में खरीद लाते हैं और उसे तंबाकू में कूटकर बेचते हैं। दूकानदार सीरे को काठ के बड़े-बड़े़ पीपों में भरकार और गाड़ी में लादकर ले जाते हैं। काठ के पीपे में छोटे-छोटे छिद्र हो जाते हैं, उनमें से सीरा रास्ते में टपकता जाता है।
.
हमने अपनी आँखों से देखा है, कि गाँव के ग्वारिया उन बूँदों को उँगलियों से उठाकर चाटते हैं और मिठास की खुशी के कारण नाचने लगते हैं, जहाँ कहीं बड़ी-बड़ी दस-पाँच बूँदें मिल जाती हैं, वहाँ वे प्रसन्नता के कारण उछलने लगते हैं और खुशी में अपने को परम सुखी समझने लगते हैं। यदि उन्हें कहीं मिश्री खाने के लिये मिल जाय तो फिर वे उस बदबूदार सीरे की ओर आँख उठाकर भी न देखेंगे, क्योंकि असली मिठास तो मिश्री में ही है। सीरे में तो उसका मैल है। मिठास के संसर्ग के कारण ही मैल में भी मिठास-सा प्रतीत होता है। .
.
अज्ञानी बालक उसे ही मिठास समझकर खुशी से कूदने लगते हैं। इसी प्रकार असली आनन्द तो वैराग्य में ही है, विषयों में जो आनन्द प्रतीत होता है, वह तो वैराग्य का मैलमात्र ही है, जिसने वैराग्य का रसास्वादन कर लिया, वह इन क्षणभंगुर अनित्य संसारी विषयों में क्यों राग करेगा? वैराग्य का पिता पश्चात्ताप है, पश्चात्ताप के बिना वैराग्य हो ही नहीं सकता।
.
जब किसी महात्मा के संसर्ग में हृदय में अपने पुराने कृत्यों पर पश्चात्ताप होगा तभी वैराग्य की उत्पत्ति होगी। वैराग्य का पुत्र त्याग है, त्याग वैराग्य से ही उत्पन्न होता है, बिना वैराग्य के त्याग ठहर ही नहीं सकता। त्याग के सुख नाम का पुत्र है और शान्ति नाम की एक पुत्री। ‘त्यागान्नास्ति परं सुखम्’ त्याग से बढ़कर परम सुख कोई है ही नहीं। त्याग के बिना सुख हो ही नहीं सकता। भगवान भी कहते हैं- ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ त्याग के अनन्तर ही शान्ति की उत्पत्ति होती है। अतः इस पूरे परिवार के आदिपुरुष या पूर्वज जनक पश्चात्ताप ही हैं। पश्चात्ताप के बिना इस परिवार की वंशवृद्धि नहीं हो सकती। इसीलिये तो सत्संग की इतनी महिमा वर्णन की गयी है।
.
महापुरुषों के संसर्ग में जाने से कुछ तो अपने व्यर्थ के कर्मों पर पश्चात्ताप होगा ही, इसीलिये भगवती श्रुति बार-बार कहती है ‘कृतं स्मर’ ‘कृतं स्मर’ किए हुए का स्मरण करो। असली पश्चात्ताप तो सर्वस्व के नष्ट हो जाने पर या अपनी अत्यन्त प्रिय वस्तु के न प्राप्त होने पर ही होता है।
.
जिन्हें परम सुख की इच्छा है और संसारी पदार्थों में उसका अभाव पाते हैं, वे संसारी सुखों में लात मारकर असली सुख की खोज में पहाड़ों की कन्दराओं में तथा एकान्त स्थानों में रहकर उसकी खोज करने लगते हैं उन्हीं को विरागी कहते हैं।
.
दिग्विजयी पण्डित कैशव काश्मीरी की हार्दिक इच्छा थी कि मैं संसार में सर्वोत्तम ख्याति लाभ करूँ, भारतवर्ष में मैं ही सर्वश्रेष्ठ कवि और पण्डित समझा जाऊँ। इसी के लिये उन्होंने देश-विदेशों में घूमकर इतनी इज्जत-प्रतिष्ठा और धूम-धाम की सामग्री एकत्रित की थी, आज एक छोटी उम्र के युवक अध्यापक ने उनकी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा धूल में मिला दी। उनकी इतनी ऊँची आशा पर एकदम पानी फिर गया।
.
उनकी इतनी जबरदस्त ख्याति अग्नि में जलकर खाक हो गयी, इससे उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ। गंगा जी से लौटकर वे चुपचाप आकर पलँग पर पड़ रहे। साथियों ने भोजन के लिये बहुत आग्रह किया किन्तु तबीयत खराब होने का बहाना बताकर उन्होंने उन लोगों से अपना पीछा छुड़ाया।
.
वे बार-बार सोचते थे- ‘आज मुझे हो क्या गया? बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान मेरे सामने बोल नहीं सकते थे, अच्छे-अच्छे शास्त्री और आचार्य मेरे प्रश्नों का उत्तर देना तो अलग रहा, यथावत प्रश्न को समझ भी नहीं सकते थे, पर आज गंगा-किनारे उस युवक अध्यापक के सामने मेरी एक भी न चली। मेरी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये, उसकी एक बात का भी मुझसे उत्तर देते नहीं बना।
.
मेरी समझ में नहीं आता यह बात क्या है?’ उन्हें बार-बार सरस्वती देवी के ऊपर क्रोध आने लगा। वे सोचने लगे- ‘मैंने कितने परिश्रम से सरस्वती मन्त्र का जाप किया था, सरस्वती ने भी प्रत्यक्ष प्रकट होकर मुझे वरदान दिया था, कि मैं शास्त्रार्थ में सदा तुम्हारी जिह्वा पर निवास किया करूँगी, आज उसने अपना वचन कैसे झूठा कर दिया, आज वह मेरी जिह्वा पर से कहाँ चली गयी?’
.
इसी अधेड़-बुन में वे उसी देवी के मन्त्र का जप करने लगे और जप करते-करते ही सो गये। स्वप्न में मानो सरस्वती देवी उनके समीप आयी हैं और कह रही हैं- ‘सदा एक-सी दशा किसी की नहीं रही है। जो सदा सबको विजय ही करता रहा है, उसे एक दिन पराजित भी होना पड़ेगा। तुम्हारा यह पराभव तुम्हारे कल्याण के ही निमित्त हुआ है।
.
इसे तुम्हें इस दिग्विजय का और मेरे दर्शनों का फल ही समझना चाहिये। यदि आज तुम्हारी पराजय न होती तो तुम्हारा अभिमान और भी अधिक बढ़ता। अभिमान ही नाश का मुख्य हेतु है। तुम निमाई पण्डित को साधारण पण्डित ही न समझो। वे साक्षात नारायणस्वरूप हैं, वे नररूपधारी श्रीहरि ही हैं, उन्हीं की शरण में जाओ, तभी तुम्हारा कल्याण होगा और तुम इस मोहरूपी अज्ञान से मुक्त हो सकोगे।’
.
इतने में ही दिग्विजयी की आँखें खुल गयीं। देखते क्या हैं भगवान भुवनभास्कर प्राचीदिशि में उदित होकर अपनी जगन्मोहिनी हँसी के द्वारा सम्पूर्ण संसार को आलोक प्रदान कर रहे हैं। पण्डित केशव काश्मीरी को प्रतीत हुआ मानो मरीचिमाली भगवान मेरे पराभव के ही ऊपर हँस रहे हैं।
.
वे जल्दी से कुर्ता पहनकर नंगे सिर और नंगे पैरों अकेले ही निमाई के घर की ओर चले। रास्ते में जो भी इन्हें इस वेश में जाते देखता, वही आश्चर्य करने लगता। राजा-महाराजाओं की भाँति जो हाथी पर सवार होकर निकलते थे, जिनके हाथी के आगे-आगे चोबदार नगाड़े बजा-बजाकर आवाज देते जाते थे, वे ही दिग्विजयी पण्डित आज नंगे पैरों साधारण आदमियों की भाँति नगर की ओर कहाँ जा रहे हैं?
.
इस प्रकार सभी उन्हें कुतूहल की दृष्टि से देखने लगे। कोई-कोई तो उनके पीछे भी हो लिये। नगर में जाकर उन्होंने बच्चों से निमाई पण्डित के घर का पता पूछा। झुंड-के-झुंड लड़के उनके साथ हो लिये और उन्होंने निमाई पण्डित का घर बता दिया।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें