सोमवार, 2 मार्च 2020

*शक्ति शिव शोध का अंग १०८*(१/४)* =

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*जीवों माँही जीव रहै, ऐसा माया मोह ।*
*सांई सूधा सब गया, दादू नहीं अंदोह ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ Mahant Ram Gopal Das Tapasvi
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*शक्ति शिव शोध का अंग १०८*
इस अंग में माया और ब्रह्म के शोध संबंधी विचार कर रहे हैं ~
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ब्रह्माण्ड पिंड प्राणी सहित, यहु सब ॠद्धि शरीर । 
रज्जब पावै कौन विधि, शक्ति समुद्र सु तीर ॥१॥
जीव के देह सहित यह सभी ब्राह्मण्ड माया का शरीर है, उस माया रूप समुद्र का अगला तट सहज ही किस प्रकार मिल सकता है ?
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ब्राह्मण्ड पिंड जीव ज्योति लग, मधि माया मुर१ रूप । 
रज्जब निकसै कौन विधि, रिधि छायां हरि कूप ॥२॥
ब्रह्माण्ड, शरीर, जीव और ज्ञान - ज्योति तक में तमोगुण, रजोगुण, सतोगुण इन तीन१ रूप में स्थित है । जैसे कूप से छाया नहीं निकल सकती, वैसे ही हरि से माया नहीं निकल सकती । 
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ओंकार आतम सहित, तन मन शक्ति शरीर । 
रज्जब न्यारा ॠद्धि सौं, कौन कौन विधि वीर ॥३॥
ओंकार और जीवात्मा के सहित तन मनादि सब माया का ही शरीर है । हे भाई ! माया से कौन किस प्रकार अलग हो सकता है । 
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ब्रह्माण्ड, पिंड माँहि रहै, पुनि मन मनसा मांहि । 
रज्जब रमहि सु ॠद्धि में, बाहर कहिये नांहिं ॥४॥
ब्रह्माण्ड, शरीर, मन और बुद्धि आदि सब में माया है और सभी माया में विचरते है, माया के बाहर कोई भी नहीं जा सकता । 
(क्रमशः)

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