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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग रामकली ८ (गायन समय प्रभात ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२०२ - बेली । त्रिताल
बेली आनन्द प्रेम समाइ ।
सहजैं मगन राम रस सींचै,
दिन दिन बधती जाइ ॥टेक॥
सद्गुरु सहजैं बाही बेली,
सहज गगन घर छाया ।
सहजैं सहजैं कोंपल मेल्हे,
जाने अवधू राया ॥१॥
आतम बेली सहजैं फूलै,
सदा फूल फल होई ।
काया बाड़ी सहजैं निपजै,
जानै विरला कोई ॥२॥
मन हठ बेली सूखन लागी,
सहजैं जुग जुग जीवै ।
दादू बेलि अमर फल लागै,
सहज सदा रस पीवै ॥३॥
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परमार्थ बुद्धि - बेलि का परिचय दे रहे हैं - बुद्धि - लता प्रभु - प्रेमानन्द में समा रही है, राम - भक्ति - रस के सिंचन से प्रतिदिन बढ़ती जाती है और सहजावस्था में जाकर परब्रह्म में निमग्न होती है ।
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यह परमार्थ बुद्धि - बेलि हृदय में सद्गुरु ने लगाई है, अब यह सहज - स्वरूप ब्रह्म में निमग्न होकर शरीर - घर पर फैल गई है अर्थात् इन्द्रिय अन्त:करणादि में परमार्थ भावना आ गई है और शनै:शनै: वृद्धि रूप अँकुर देती है । इस बेलि की वृद्धि के रहस्य को अवधूतों में श्रेष्ठ अवधूत सँत ही जानते हैं ।
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उक्त प्रकार बढ़कर यह परमार्थ बुद्धि - बेलि अनायास ही अनन्य - भक्ति रूप फूल और आत्म - ज्ञान रूप फल देती है, फिर तो इसके सदा ही फूल - फल लगते रहते हैं अर्थात् निरन्तर बुद्धि में भक्ति ज्ञान बने रहते हैं । इस प्रकार अनायास ही शरीर - बाड़ी की हृदय - क्यारी में यह उत्पन्न होती है और इसे कोई विरला सँत ही यथार्थ रूप से जान पाता है ।
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इस परमार्थ बुद्धि - बेलि के लगने पर विषयों में सत्यता के दुराग्रह - युक्त मन - मुखी बुद्धि - बेलि सूखने लगती है और जो परमार्थ - बुद्धि बेलि के ज्ञान रूप अमर फल लगता है, साधक सहजावस्था में जाकर सदा उसका आनन्द - रस पान करता है और द्वंदों के कष्ट से रहित होकर अनायास ही ब्रह्म रूप से सदा जीवित रहता है ।
(क्रमशः)
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