सोमवार, 2 मार्च 2020

*२. स्मरण का अंग ~ ६१/६४*


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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२. स्मरण का अंग ~ ६१/६४*
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जगजीवन ये अंग सब, उस अंग मांहि समाइ ।
तौ अति आनंद ऊपजै, हरि धन किया कमाइ ॥६१॥
संत जगजीवन दास जी महाराज कहते हैं कि ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण हो, भक्त का ‘निज स्वरुप’ जब भगवान के ‘निज स्वरुप’ से एकाकार हो तभी आनंद का अनुभव होता है और यही सच्ची ईश्वरीय कमाई है।
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हरि सुख मांहै हरि दुख मांहै, सुमिरन भूलें नांहि ।
कहि जगजीवन सोइ जन, कारिज कर ले मांहि ॥६२॥
संत कहते हैं चाहे सुख हो चाहे दुख हो जिसे प्रभु स्मरण सदा याद रहे वही जीव सही है । ऐसा भक्त अपनी हरि भजन सेवा को सुख दुख से परे रख कर निरंतर अन्तर में भजन करता रहता है।
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ल्यौ रे कोई रांम धन, दुख दलिद्र सब जाइ ।
टोटा११ भाजै जनम का, सो किन बिणजै१२ आइ ॥६३॥
संत कहते हैं कि अरे कोई रामधन लेलो रे... इससे सारे दुःख दरिद्र चले जाते हैं, जो राम भजन करता है, वह प्रभु नाम का धन अर्जित करता है। उसके इस भजन धन के व्यापार से जन्मों के अभाव मिट जाते है। (११. टोटा-धन की कमी. घाटा होना)
(१२. किन बिणजै=क्यों न व्यापार करे)
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गई अविद्या जीव की, विद्या पढ्या निवास ।
रांम रांम हरि हरि अलख, सु कहि जगजीवनदास ॥६४॥
संत कहते है कि विद्या का निवास होने से अविद्या चली जाती है। राम रांम हरि हरि का निरंतर स्मरण और भरोसा ही श्रेष्ठ है।
(क्रमशः)

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