बुधवार, 4 मार्च 2020

चितावणी कौ अंग १/५

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ९. चितावणी कौ अंग) 
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।* 
*वंदनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥* 
*दादू जे साहिब कौं भावै नहीं, सो हम थैं जनि होइ ।* 
*सतगुरु लाजै आपणा, साध न मानैं कोइ ॥२॥* 
मुक्ति को देने वाले इस मनुष्य शरीर में आकर जीव को शुभ कर्म ही करने चाहिये, अशुभाचरण नहीं । क्योंकि अशुभ कर्मों के करने से प्रभु प्रसन्न नहीं होते । गुरु को भी शिष्य के दुर्गुणों को सुन कर लज्जा आती है । साधु भी उन कर्मों की प्रशंसा नहीं करेगें । तो फिर क्या करना चाहिये, तो बतला रहे हैं कि- 
वेदान्त का युक्तियों द्वारा श्रवण मनन करे और योग का अभ्यास नित्य करे । जिससे आत्मा का दर्शन हो जावे । 
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो सब परिहर प्राण ।* 
*मनसा वाचा कर्मणा, जे तूं चतुर सुजाण ॥३॥* 
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो जीव न कीजी रे ।* 
*परिहर विषय विकार सब, अमृत रस पीजी रे ॥४॥* 
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो बाट न बूझी रे ।* 
*सांई सौं सन्मुख रही, इस मन सौं झूझी रे ॥५॥* 
हे साधक ! यदि तू व्यवहार चतुर और बुद्धिमान है तो प्रभु की प्रसन्नता के विरोधी हिंसा अहंकार दम्भ आदि कर्मों में आसक्त मत हो । क्योंकि यह सब आसुर वृत्ति वाले कर्म हैं और सन्मार्ग का विरोध करने वाले हैं । अतः तुम उन विषय-विकारों को त्याग कर राम नाम रूप अमृत का पान कर । तथा मन के साथ उसको जीतने के लिये युद्ध कर । श्रुति में कहा है कि इस संसार में जो कुत्सित कर्म करने वाले हैं, वे नीच योनि में जन्म लेते हैं । जैसे कुत्ता, सूकर चाण्डाल योनि को प्राप्त करते हैं । तो फिर मन से कैसे लड़ें? यह लिख रहे हैं कि-वेदान्त संदर्भ में माया से युक्त ब्रह्म को ईश्वर कहते हैं और मायातीत सच्चिदानन्द स्वरूप निरन्जन ब्रह्म है । उस चिदाकाश में मायारूपी मेघ है जिसमें बिजली चमक रही है और अहंता की गर्जना हो रही है । जहां पर महामोह का अन्धकार व्याप्त है । वहां पर देव द्वारा लीला करते हुए असार पदार्थों की वृत्तियों को नष्ट करने के लिये ज्ञान रूपी वायु है, जिससे उनका नाश हो जायेगा । दृग और दृश्य के मान को ज्ञान कहते हैं और दृश्य सर्वथा शून्य हो जाता है तब उसको विज्ञान कहते हैं । अतः ज्ञान विज्ञान के द्वारा इस मायामेघ को नष्ट कर दो । जिससे मन में असद् वृत्तियों की वर्षा न होगी । इसी प्रकार मन को जीतने के लिये युद्ध करना चाहिये । 
(क्रमशः)

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