शुक्रवार, 20 मार्च 2020

*स्वार्थ का अंग १०९(१/४)* =


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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू स्वाद लागि संसार सब, देखत परलै जाइ ।*
*इन्द्री स्वारथ साच तजि, सबै बंधाणै आइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वार्थ का अंग १०९*
इस अंग में स्वार्थ संबंधी विचार कर रहे हैं ~
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जूं डारैं जोख्यों नहीं, पूत मरत हो पीर ।
जन रज्जब बालक उभय, पर स्वार्थ रोवै वीर ॥
हे भाई ! जूं को कपड़े आदि से निकालकर पलटने से तो हानि नहीं होती लेकिन पुत्र मरने पर पीड़ा होती है, यद्यपि जूं और पुत्र दोनों ही बालक है किन्तु पाणी स्वार्थ को ही रोते हैं ।
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रज्जब स्वार्थ सबल है, इहीं सारे संसार । 
लोभ सु लाँबे जेवड़ों१, बाँध लिये सब लार ॥२॥
इस संसार में स्वार्थ की सबलता देखी जाती है, ये लोभ रूप रस्से१ से बांधकर अपने साथ घसीट रहा है । 
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रज्जब स्वारथ ठग ठगे, चौरासी लख प्राण । 
तन मन धन सब का लिया, कहिये कहा बखाण ॥३॥ 
स्वार्थ रूप ठग ने चौरासी लाख प्राणियों को ही ठगा है, सभी के तन, मन, धन को अपहरण किया है, उसकी ठगी का क्या कथन करें बड़ी ही विचित्र है । 
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स्वारथ वश संकट सभी, स्वाद१ सहावै मार । 
रज्जब रोटी दोवटी२, दुख दाई संसार ॥४॥
स्वार्थ के वश होने से सभी दु:खी होते हैं, इन्द्रिय सुखों१ के लिये ही मार सहन करता है, स्वार्थ के वश होने से केवल रोटी, कपड़े२ के लिये भी संसार दु:ख दाता हो जाता है । 
(क्रमशः)

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