बुधवार, 18 मार्च 2020

मन कौ अंग ५४/५९

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १०. मन कौ अंग)
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*दादू पाका मन डोलै नहीं, निश्‍चल रहै समाइ ।*
*काचा मन दह दिशि फिरै, चंचल चहुँ दिशि जाइ ॥५४॥*
अपरोक्ष साक्षात्कारजन्य ब्रह्मज्ञान से मन वासनारहित होकर परिपक्व होता हुआ विषयों में आसक्त नहीं होता । किन्तु निश्चल होकर ब्रह्म का चिन्तन करता है और वासना वाला मन तो विषयों में ही घूमता रहता है । अतः वह काचा ही है । विवेकचूड़ामणि में लिखा है-
कौन बुद्धिमान मनुष्य परम आनन्दरस का अनुभव छोड़कर तुच्छ विषयों के रस में रमण करेगा अर्थात् कोई भी नहीं । जैसे महान् आनन्द को देने वाले चन्द्रप्रकाश को छोड़कर कौन चित्र के चन्द्रमा को देखना चाहेगा ।
असत्यपदार्थों के अनुभव से कुछ भी तो तृप्ति नहीं होती और न दुःख की ही हानि होती है । अतः नित्य अद्वय आनन्द के रस की अनुभूति से तृप्त होकर सदा आत्मनिष्ठा में सुखी रहो ।
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*॥ विरक्तता ॥*
*सीप सुधा रस ले रहै, पीवै न खारा नीर ।*
*मांहैं मोती नीपजै, दादू बंद शरीर ॥५५॥*
जैसे सीपी स्वाति नक्षत्र का जल पीकर अपने मुख को बन्द कर लेती है । जिससे मुख में समुद्र का खारा पानी न जा सके । अतः उसके मुख का पानी मोती बन जाता है । इसी प्रकार साधक सत्संग समुद्र के मध्य में रहता हुआ विचार रूपी रस का पान करके विषय रस के प्रवाह में न गिरे तो उसको भक्ति प्राप्त हो जाती है । विवेकचूड़ामणि में-
ब्रह्मवेत्ता की बुद्धि के विहार के लिये ब्रह्मज्ञान के अलावा कोई चिन्तन के लिये स्थान है ही नहीं, क्योंकि उसकी दृष्टि में सारा संसार ब्रह्मरूप ही है । अतः आध्यात्मिक दृष्टि वाले साधक को शान्त मन से सब अवस्थाओं में ब्रह्म को ही देखना चाहिये, जैसे नेत्र वाले पुरुष को चारों ओर रूप के अलावा देखने को अन्य है ही नहीं ।
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*॥ मन ॥*
*दादू मन पंगुल भया, सब गुण गये बिलाइ ।*
*है काया नौ-जोबनी, मन बूढ़ा ह्वै जाइ ॥५६॥*
जिसने आत्म साक्षात्कार कर लिया उस साधक का मन वासना रहित होने से पंगु की तरह हो जाता है अर्थात् विषय में कहीं भी आसक्त नहीं होता । उसका शरीर भले ही युवा पुरुष की तरह सशक्त रहे, पर मन बूढा हो जाता है । अर्थात् विषयों में जाने के लिये समर्थ नहीं होता क्योंकि यह गुणातीत हो जाता है । गुणों के विना चंचलता नहीं रहती, चंचलता से ही मन दौड़ता है ।
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*दादू कच्छप अपने कर लिये, मन इन्द्री निज ठौर ।*
*नाम निरंजन लाग रहु, प्राणी परिहर और ॥५७॥*
जैसे भय से कच्छप अपनी सारी इन्द्रियों को इकट्ठा करके बैठ जाता है वैसे ही ज्ञाननिष्ठ ज्ञानी भी इन्द्रियों के शब्दस्पर्शादि विषयों से अपनी इन्द्रियों और मन का उपसंहार करके इन्द्रियसंयमपूर्वक ब्रह्मनिष्ठ रहता है । हे साधक ! तुम भी अपने मन इन्द्रियों को विषय से हटा कर ब्रह्मानन्द का रसास्वादन करो ।
गीता में- जब साधक कछुए की तरह अपने इन्द्रियों को विषयों से हटा लेता है तब उसकी बुद्धि स्थितप्रज्ञ कहलाती है । अर्थात् समाधि में सकलवृत्तियों का अभाव हो जाता है । वेदान्तसंग्रह में- हे विद्वान् मुने ! तुम अपने मन से ब्रह्मानन्द रस का स्वाद लेते हुए सदा समाधिनिष्ठ हो जावो ।
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*॥ जाचक ॥*
*मन इन्द्री अंधा किया, घट में लहर उठाइ ।*
*साँई  सतगुरु छाड़ कर, देख दिवाना जाइ ॥५८॥*
अजित मन वाले साधक के चित्त में इन्द्रियाँ भोगों के अंकुर(इच्छा) को पैदा करके जीव को अन्धा(विवेकशून्य) बना देती हैं । जिसका कारण साधक सद्गुरु की आज्ञा की उपेक्षा करता हुआ भगवद् भजन को छोड़कर विषयों में ही दौड़ता रहता है । अतः साधक को अपनी इन्द्रियाँ जीतनी चाहिये ।
गीता में लिखा है कि- हे अर्जुन ! ये इन्द्रियाँ मन का मन्थन करने वाली हैं । अतः इनको रोकने का यत्न करने वाले विद्वान् के मन को भी हठात् विषयों में ले जाती है अतः उन सब इन्द्रियों को प्रत्याहार के द्वारा विषयों से हटाकर भगवत्परायण बनाओ । क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में है उसकी बुद्धि भी परमात्मा में स्थित रहती है ।
यदि यह मन इन्द्रियों का अनुगामी हो जायेगा तो प्रज्ञा(बुद्धि) लुट जायेगी । जैसे हवा पानी में नौका को उड़ाकर ले जाती है । वैसे ही इन्द्रियां मन बुद्धि को उड़ाकर विषयों में ले जायेगी । इसलिये हे महाभुजावाले अर्जुन, जिसने अपनी इन्द्रियों को चारों तरफ से इन्द्रियों के विषय से निग्रहीत कर रखी है, उसकी बुद्धि भी प्रतिष्ठित है । इसलिये इन्द्रियार्थ से अपनी इन्द्रियों को निग्रहीत करके काबू में रखो । 
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*दादू कहै राम बिना मन रंक है, जाचै तीनों लोक ।*
*जब मन लागा राम सौं, तब भागे दालिद्र दोष ॥५९॥*
यह मन बड़ा ही दरिद्र है इसको विषयों से कभी संतोष ही नहीं आता । अतः यह जहाँ कहीं पर जाता है तो भोगों की ही याचना करता है । कारण कि भोगों की वासनाओं(संस्कारों) से भरा पड़ा है, वैराग्य होता नहीं । भाग्यवशात् कभी यह श्री भगवान् को भजता है तो इसकी सारी वासनायें नष्ट हो जाती है । तब यह मन समस्त बन्धनों एवं दोषों से निर्मुक्त होकर भगवान् को प्राप्त होता है ।
भागवत में- हे राजन् यह जीवात्मा आत्मज्ञान के द्वारा संग दोषों से रहित तथा कामादि षट् शत्रुओं जीतकर आत्मतत्त्व को नहीं जानता तब यह संसार में ही भटकता रहता है । जब तक यह जीव संसार के तापों का क्षेत्र शोकमोहरागद्वेष-लोभ-वैर आदि को उत्पन्न करने वाला आत्मा की उपाधिस्वरूप मन को नहीं जान लेता, तब तक संसार में भ्रमता ही रहता है ।
(क्रमशः)

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