शनिवार, 21 मार्च 2020

*स्वार्थ का अंग १०९(५/८)* =


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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जैसे अंध अज्ञान गृह, बंध्या मूरख स्वाद ।*
*ऐसैं दादू हम भये, जन्म गँवाया बाद ॥*
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श्री रज्जबवाणी
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वार्थ का अंग १०९*
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स्वाद सनेही जीव का, जीव न छोड़ै स्वाद । 
तब लग सहसी मार सब, कहा किये बकवाद ॥५॥
इन्द्रिय सुखों से ही जीव का प्रेम है । जब तक जीव इन्द्रिय सुखों को नहीं छोड़ता तब तक सभी प्रकार की मार सहन करेगा, अन्य बकवाद करने से क्या लाभ है, बकवाद से दु:ख नहीं मिटते । 
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रज्जब स्वारथ सांण संग, परमारथ मणि नाश । 
मिश्री मधि विष पीजिये, ताकी कैसी आश ॥६॥
जैसे साण पर घिसने से मणि नष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वार्थ से परमार्थ नष्ट हो जाता है । जो मिश्री में मिले हुये विष का पान करता है, उसके जीवित रहने की क्या आशा है ? वैसे ही जो परमार्थ में स्वार्थ मिलाता है उसके उद्धार की क्या आशा है ?
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दिन दीपक कर लीजिये, खानि सु पैठण१ काज२ । 
सो बाहर किस काम का, जहँ रज्जब रवि राज ॥७॥
खानि में प्रवेश१ करने के लिये२ दिन में दिपक जलाया जाता है किन्तु वह दीपक बाहर जहाँ सूर्य का प्रकाश है वहाँ किस काम का है वैसे ही स्वार्थ संसार में ही शोभा देता है, परमार्थ में नहीं । 
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रज्जब रवि राकेश१ बिन, रार्यों२ हु तम हर३ आश । 
सप्त दोष दीपहि बसे, पै तुंगनि४ तोरा५ ताश६ ॥८॥
यद्यपि दीपक में बुझना, काजल देना, हिलना, दुर्गन्ध देना आदि सात दोष रहते हैं तो भी सूर्य-चन्द्र१ आदि नहीं हो तब नेत्र२ का अंधकार३ दूर करने की आशा दीपक से करते हैं कारण - रात्रि४ में तो उसके५ प्रकाश का जोर६ रहता ही है । वैसे ही परमार्थ नहीं होने पर स्वार्थ की भावना होती है और संसार में तो स्वार्थ की प्रबलता है ही । 
(क्रमशः)

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