मंगलवार, 3 मार्च 2020

*नाहं, नाहं, तू है तू है*


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*भाव भक्ति लै ऊपजै, सो ठाहर निज सार ।*
*तहँ दादू निधि पाइये, निरंतर निरधार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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पड़ोसी- आपने गुरुपदेश के बारे में बताया, पर गुरु कैसे प्राप्त करूँ?
श्रीरामकृष्ण- हर एक गुरु नहीं हो सकता । कीमती शहतीर पानी में स्वयं भी बहता हुआ चला जाता है और अनेक जीव-जन्तु भी उस पर चढ़कर जा सकते हैं । पर मामूली लकड़ी पर चढ़ने से लकड़ी भी डूब जाती है और जो चढ़ता है वह भी डूब जाता है । इसलिए ईश्वर युग युग में लोकशिक्षा के लिए गुरु-रूप में स्वयं अवतीर्ण होते हैं । सच्चिदानन्द ही गुरु हैं ।
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“ज्ञान किसे कहते हैं; और मैं कौन हूँ? ‘ईश्वर ही कर्ता हैं और सब अकर्ता’ इसी का नाम ज्ञान है । मैं अकर्ता, उनके हाथ का यत्र हूँ । इसीलिए मैं कहता हूँ, माँ, तुम यंत्री हो, मैं यन्त्र हूँ; तुम घरवाली हो, मैं घर हूँ; मैं गाड़ी हूँ, तुम इंजीनियर हो । जैसा चलाती हो वैसा चलता हूँ, जैसा कराती हो वैसा करता हूँ, जैसा बुलवाती हो, वैसा बोलता हूँ; नाहं, नाहं, तू है तू है ।”
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*‘कमलकुटीर’ में श्रीरामकृष्ण और श्री केशव सेन*
श्रीरामकृष्ण कप्तान के घर होकर श्रीयुत केशव सेन के ‘कमलकुटीर’ नामक मकान पर आए हैं । साथ हैं राम, मनोमोहन, सुरेन्द्र, मास्टर आदि अनेक भक्त लोग । सब दुमँजले के हाल में बैठे हैं । श्री प्रताप मजुमदार, श्री त्रैलोक्य आदि ब्राह्मभक्त भी उपस्थित हैं ।
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श्रीरामकृष्ण केशव को बहुत प्यार करते हैं । जिन दिनों बेलघर के बगीचे में वे शिष्यों के साथ साधन-भजन कर रहे थे तब, अर्थात् १८७५ ई. के माघोत्सव के बाद कुछ दिनों के अन्दर ही, एक दिन श्रीरामकृष्ण ने बगीचे में जाकर उनके साथ साक्षात्कार किया था । साथ था उनका भानजा हृदयराम । 
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बेलघर के इस बगीचे में उन्होंने केशव से कहा था, “तुम्हारी दुम झड़ गयी है, अर्थात् तुम सब कुछ छोड़कर संसार के बाहर भी रह सकते हो और फिर संसार में भी रह सकते हो । जिस प्रकार मेंढक के बच्चे की दुम झड़ जाने पर वह पानी में भी रह सकता है और फिर जमीन पर भी ।” इसके बाद दक्षिणेश्वर में, कमलकुटीर में, ब्राह्मसमाज आदि स्थानों में अनेक बार श्रीरामकृष्ण ने वार्तालाप के सिलसिले में उन्हें उपदेश दिया था । 
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“अनेक पन्थों से तथा अनेक धर्मों द्वारा ईश्वर-प्राप्ति हो सकती है । बीच बीच में निर्जन में साधन-भजन करके भक्तिलाभ करते हुए संसार में रहा जा सकता है । जनक आदि ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके संसार में रहे थे । व्याकुल होकर उन्हें पुकारना पड़ता है तब वे दर्शन देते हैं । तुम लोग जो कुछ करते हो, निराकार का साधन, वह बहुत अच्छा है ।” 
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“ब्रह्मज्ञान होने पर ठीक अनुभव करोगे कि ईश्वर सत्य है और सब अनित्य; ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है । सनातन हिन्दू धर्म में साकार निराकार दोनों ही माने गए हैं । अनेक भावों से ईश्वर की पूजा होती है । शान्ति, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर । शहनाई बजाते समय एक आदमी केवल पोंऽऽ ही बजाता है, परन्तु उसके बाजे में सात छेद रहते हैं । और दूसरा व्यक्ति, जिसके बाजे में सात छेद हैं, वह अनेक राग-रागिनियाँ बजाता है ।”
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“तुम लोग साकार को नहीं मानते इसमें कोई हानि नहीं; निराकार में निष्ठा रहने से भी हो सकता है । परन्तु साकारवादियों के केवल प्रेम के आकर्षण को लेना । माँ कहकर उन्हें पुकारने से भक्तिप्रेम और भी बढ़ जायगा । कभी दास्य, कभी सख्य, कभी वात्सल्य, कभी मधुर भाव । ‘कोई कामना नहीं है, उन्हें प्यार करता हूँ’, यह बहुत अच्छा भाव है । इसका नाम है अहेतुक भक्ति । रुपया-पैसा, मान-इज्जत कुछ भी नहीं चाहता हूँ, चाहता हीं केवल तुम्हारे चरण-कमलों में भक्ति ।” 
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“वेद, पुराण, तन्त्र में एक ईश्वर ही की बात है और उनकी लीला की बात । ज्ञान भक्ति दोनों ही हैं । संसार में दासी की तरह रहो । दासी सब काम करती है, पर उसका मन रहता है अपने घर में । मालिक के बच्चे को पालती-पोसती है; कहती है ‘मेरा हरि, मेरा राम ।’ परन्तु खूब जानती है, लड़का उसका नहीं है । तुम लोग जो निर्जन में साधना करते हो बहुत अच्छी है । उनकी कृपा होगी । जनक राजा ने निर्जन में कितनी साधना की थी । साधना करने पर ही तो संसार में निर्लिप्त होना सम्भव है ।” 
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“तुम लोग भाषण देते हो, सभी के उपकार के लिए; परन्तु ईश्वर को प्राप्त करने के बाद तथा उनके दर्शन प्राप्त कर चुकने के बाद ही भाषण देने से उपकार होता है । उनका आदेश न पाकर दूसरों को शिक्षा देने से उपकार नहीं होता । ईश्वर को प्राप्त किए बिना उनका आदेश नहीं मिलता । ईश्वर के प्राप्त होने का लक्षण है- मनुष्य बालक की तरह, जड़ की तरह, उन्मादवाले की तरह, पिशाच की तरह हो जाता है; जैसे शुकदेव आदि । चैतन्यदेव कभी बालक की तरह, कभी उन्मत्त की तरह नृत्य करते थे । हँसते थे, रोते थे, नाचते थे, गाते थे । पुरीधाम में जब थे तब बहुधा जड़ समाधि में रहते थे ।” 
(क्रमशः)

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