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*गर्वै भाव न ऊपजै, गर्वै भक्ति न होइ ।*
*गर्वै पिव क्यों पाइये, गर्वै करै जनि कोइ ॥*
*गर्वै बहुत विनाश है, गर्वै बहुत विकार ।*
*दादू गर्व न कीजिये, सन्मुख सिरजनहार ॥*
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*२८. नवद्वीप में दिग्विजयी पण्डित*
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सभायां पण्डिताः कोचित्केचित्पण्डितपण्डिताः।
गृहेषु पण्डिताः केचित्केचिन्मूर्खेषु पण्डिताः॥[१]
([१] बहुत-से तो सभा में ही पण्डित होते हैं, सभा में तो वे इधर-उधर की बहुत-सी बातें कहकर लोगों पर अपना पाण्डित्य प्रदर्शन कर देंगे; किन्तु एकान्त में वे यथावत किसी शास्त्रीय विषय पर विचार नहीं कर सकते। बहुत-से अपने पाण्डित्य को पण्डितों के ही सामने प्रकट करने में समर्थ होते हैं। जो उनके विषय को समझने में असमर्थ होते हैं, उनके सामने वे अपना पाण्डित्य नहीं दिखा सकते। बहुत-से अपने घर की स्त्रियों के ही सामने अपना पाण्डित्य छाँटा करते हैं, बाहर उनसे बातें भी नहीं बनतीं और बहुत-से अपने पाण्डित्य का मूर्खों पर ही रोब जमाया करते हैं। बुद्धिवैलक्षण्य से पाण्डित्य के अनेक प्रकार हैं।)
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भगवद्दत्त प्रतिभा भी एक अलौकिक वस्तु है। पता नहीं, किस मनुष्य में कब और कैसी प्रतिभा प्रस्फुटित हो उठे। अच्छे गायकों को देखा है, वे पद को सुनते-सुनते ही कण्ठस्थ कर लेते हैं। सुयोग्य गायकों को दूसरी बार पद्य को पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती, एक बार के सुनने पर ही उन्हें याद हो जाता है।
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किसी को जन्म से ही ताल, स्वर और राग-रागिनियों का ज्ञान होता है और वह अल्प वय में अच्छे-अच्छे धुरन्धरों को अपने गायन से आश्चर्यान्वित बना देता है। कोई कवि होकर ही माता के गर्भ से उत्पन्न होते हैं, जहाँ वे बोलने लगे, कि उनकी वाणी से कविता ही निकलने लगती है। कोई अनपढ़ होने पर भी ऐसे सुन्दर वक्ता होने हैं कि अच्छे-अच्छे शास्त्री और महामहोपाध्याय उनके व्याख्यान को सुनकर चकित हो जाते हैं।
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यह सब भगवद्दत्त शक्तियाँ हैं, इन्हें कोई परिश्रम करके प्राप्त करना चाहे तो असम्भव है। ये सब प्रतिभा के चमत्कार हैं और यह प्रतिभा पुरुष के जन्म के साथ ही आती है, काल पाकर वह प्रस्फुटित होने लगती है। बहुत-से विद्वानों को देखा गया है, वे सभी शास्त्रों के धुरन्धर विद्वान हैं, किन्तु सभा में वे एक अक्षर भी नहीं बोल सकते।
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इसके विपरीत बहुत-से ऐसे भी होते हैं जिन्होंने शास्त्रीय विषय तो बहुत कम देखा है किन्तु वे इतने प्रत्युत्पन्नमति होते हैं कि प्रश्न करते ही झट उसका उत्तर दे देते हैं। किसी भी विषय के प्रश्न पर उन्हें सोचना नहीं पड़ता, जो प्रश्न सुनते ही ऐसा युक्तियुक्त उत्तर देते हैं कि सभा के सभी सभासद वाह-वाह करने लगते हैं, इसी का नाम सभा-पाण्डित्य है।
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पहले जमाने में पण्डित के माने ही वावदूक वक्ता या व्याख्यानपटु किये जाते थे। जिसकी वाणी में आकर्षण नहीं, जिसे प्रश्न के सुनने पर सोचना पड़ता है, जो तत्क्षण बात का उत्तर नहीं दे सकता, जिसे सभा में बोलने से संकोच होता है, वह पण्डित ही नहीं। सभा में ऐसे पण्डितों की प्रशंसा नहीं होती। पाण्डित्य पने की कीर्ति के वे अधिकारी नहीं समझे जाते। वे तो पुस्तकीय जन्तु हैं जो पुस्तकें उलटते रहते हैं।
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आज से कई शताब्दी पूर्व इस देश में संस्कृत-साहित्य का अच्छा प्रचार था। राज्यसभाओं में बड़े-बड़े पण्डित रखे जाते थे, उन्हें समय-समय पर यथेष्ठ धन पारितोषिक के रूप में दिया जाता था। दूर-दूर से विद्वान सभाओं में शास्त्रार्थ करने आते थे और राजसभाओं की ओर से उनका सम्मान किया जाता था।
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पण्डितों का शास्त्रार्थ सुनना उन दिनों राजा या धनिकों का एक आवश्यक मनोरंजन समझा जाता था। जो बोलने-चालने में अत्यन्त ही पटु होते थे, जिन्हें अपनी वक्तृत्व-शक्ति के साथ शास्त्रीय ज्ञान का भी पूर्ण अभिमान होता था, वे सम्पूर्ण देश में दिग्विजय के निमित्त निकलते थे।
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प्रायः ऐसे पण्डितों को किसी राजा या धनी का आश्रय होता था, उनके साथ बहुत-से और पण्डित, घोडे़, हाथी तथा और भी बहुत-से राजसी ठाट होते थे। वे विद्या के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध केन्द्र-स्थानों में जाते और वहाँ जाकर डंके की चोट के साथ मुनादी कराते कि ‘जिसे अपने पाण्डित्य का अभिमान हो वह हमसे आकर शास्त्रार्थ करे। यदि वह हमें शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा तो हम अपना सब धन छोड़कर लौट जायँगे और वे हमें परास्त न कर सके तो हम समझेंगे हमने यहाँ के सभी विद्वानों पर विजय प्राप्त कर ली। यदि किसी की हमसे शास्त्रार्थ करने की हिम्मत न हो तो हमें इस नगर के सभी पण्डित मिलकर अपने हस्ताक्षरों सहित विजय-पत्र लिख दें, हम शास्त्रार्थ किये बिना ही लौट जायँगे।’ उनकी ऐसी मुनादी को सुनकर कहीं के विद्वान तो मिलकर शास्त्रार्थ करते और कहीं के विजय-पत्र भी लिख देते, कहीं-कहीं के विद्वान उपेक्षा करके चुप भी हो जाते।
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दिग्विजयी अपनी विजय का डंका पीटकर दूसरी जगह चले जाते। धनी-मानी सज्जन ऐसे लोगों का खूब आदर करते थे और उन्हें यथेष्ठ द्रव्य भी भेंट में देते थे। इस प्रकार प्रायः सदा ही बड़े-बड़े शहरों में दिग्विजयी पण्डितों की धूम रहती। चैतन्य देव के ही समय में चार-पाँच दिग्विजयी पण्डितों का उल्लेख मिलता है।
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आजकल यह प्रथा बहुत कम हो गयी है, किन्तु फिर भी दिग्विजयी आजकल भी दिग्विजय करते देखे गये हैं। हमने दो दिग्विजयी विद्वानों के दर्शन किये हैं, उनमें यही विशेषता थी कि वे प्रत्येक प्रश्न का उसी समय उत्तर देते थे। एक दिग्विजयी आचार्य को तो काशी जी में एक विद्यार्थी ने परास्त किया था, वह विद्यार्थी हमारे साथ पाठ सुनता था, बस, उसमें यही विशेषता थी कि वह धाराप्रवाह संस्कृत बड़ी उत्तम बोलता था।
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दिग्विजय के लिये वाक्पटुता की ही अत्यन्त आवश्यकता है। पाण्डित्य की शोभा तब और अब भी वाक्पटुता ही समझी जाती है। ऐसे ही एक काश्मीर के केशव शास्त्री अन्य स्थानों में दिग्विजय करते हुए नवद्वीप में भी विजय करने के लिये आये। उन दिनों नवद्वीप विद्या का और विशेषकर नव्य न्याय का प्रधान केन्द्र समझा जाता था। भारतवर्ष में उसकी सर्वत्र ख्याति थी। इसलिये नवद्वीप को विजय करने पर सम्पूर्ण पूर्वदेश विजित समझा जाता था।
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उस समय भी नवद्वीप में गंगादास वैयाकरण, वासुदेव सार्वभौम नैयायिक, महेश्वर, विशरद, नीलाम्बर चक्रवर्ती, अद्वैताचार्य आदि धुरन्धर और नामी-नामी विद्वान् थे। नये पण्डितों में रघुनाथदास, भवानन्द, कमलाकान्त, मुरारीगुप्त, निमाई पण्डित आदि की भी यथेष्ठ ख्याति हो चुकी थी।
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नगर में चारों ओर दिग्विजयी की ही चर्चा थी। दस-पाँच पण्डित और विद्यार्थी जहाँ भी मिल जाते, दिग्विजयी की ही बात छिड़ जाती। कोई कहता- ‘नवद्वीप को विजय करके चला गया, तो नवद्वीप की नाक कट जायगी।’ कोई कहता- ‘अजी, न्याय वह क्या जाने, न्याय की ऐसी कठिन पंक्तियाँ पूछेंगे कि उसके होश दंग हो जायँगे।’ दूसरा कहता- ‘उसके सामने जायगा कौन? बड़े-बड़े पण्डित तो गद्दी छोड़कर सभाओं में जाना ही पंसद नहीं करते।’
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इस प्रकार जिसकी समझ में जो आता वह वैसी ही बात कहता। प्रायः बड़े-बड़े विद्वान् सभाओं में शास्त्रार्थ नहीं करते। कुछ तो पढ़ाने के सिवा शास्त्रार्थ करना जानते ही नहीं, कुछ विद्वान होने पर शास्त्रार्थ कर भी लेते हैं, किन्तु उनमें चालाकी, धूर्तता और बात को उड़ा देने की विद्या नहीं होती, इसलिये चारों ओर घूम-घूमकर दिग्विजय करने वाले वावदूकों से वे घबड़ाते हैं।
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कुछ अपनी इज्जत-प्रतिष्ठा के डर से शास्त्रार्थ नहीं करते कि यदि हार गये तो लोगों में बड़ी बदनामी होगी। इसलिये बड़े-बड़े़ गम्भीर विद्वान् ऐसे कामों में उदासीन ही रहते हैं। विद्यार्थियों ने जाकर निमाई पण्डित से भी यह बात कही- ‘काश्मीर से एक दिग्विजयी पण्डित आये हैं। उनके साथ बहुत-से हाथी-घोड़े तथा विद्वान पण्डित भी हैं। उनका कहना है, नदिया के विद्वान या तो हमसे शास्त्रार्थ करें, नहीं तो विजय-पत्र लिखकर दे दें।
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वैसे शास्त्रार्थ करने के लिये तो बहुत-से पण्डित तैयार हैं, किन्तु सुनते हैं, उन्हें सरस्वती सिद्ध है। शास्त्रार्थ के समय सरस्वती उनके कण्ठ में बैठकर शास्त्रार्थ करती है। इसी से वे सम्पूर्ण भारत को विजय कर आये हैं, सरस्वती के साथ भला कौन शास्त्रार्थ कर सकता है? इसलिये उन्हें बड़ा भारी अभिमान है। वे अभिमान में बार-बार कहते हैं- ‘मुझे शास्त्रार्थ में पराजय करने वाला तो पृथ्वी पर प्रकट ही नहीं हुआ है। इसलिये नदिया के सभी पण्डित डर गये हैं।’
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विद्यार्थियों की बातें सुनकर पण्डितप्रवर निमाई ने कहा- ‘चाहे किसी का भी वरदान प्राप्त क्यों न हो, अभिमानी का अभिमान तो अवश्य ही चूर्ण होता है। भगवान का नाम ही मदहारी है, वे अभिमान ही का तो आहार करते हैं। रावण, वेन, नरकासुर, भस्मासुर आदि सभी ने घोर तप करके ब्रह्मा जी तथा शिवजी के बड़े-बड़े वर प्राप्त किये थे। दर्पहारी भगवान ने उनके भी दर्प को चूर्ण कर दिया। अभिमान करने से बड़े-बड़े़ पतित हो जाते हैं, फिर यह दिग्विजयी तो चीज ही क्या है?’
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इस प्रकार विद्यार्थियों से कहकर आप गंगा-किनारे चले गये और वहाँ जाकर नित्य की भाँति जल-विहार और शास्त्रार्थ करने लगे। इन्होंने दिग्विजयी के सम्बन्ध में छात्रों से पता लगा लिया कि वह क्या-क्या करता है और एकान्त में गंगाजी पर आता है या नहीं, यदि आता है तो किस घाट पर और किस समय? पता चला कि अमुक घाट पर सन्ध्या-समय दिग्विजयी नित्य आकर बैठता है। निमाई उसी घाट पर अपने विद्यार्थियों के साथ जाने लगे और भी पाठशालाओं के विद्यार्थी कुतूहलवश वहीं आकर शास्त्रार्थ और वाद-विवाद करने लगे।
(क्रमशः)
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