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*पाका काचा ह्वै गया, जीत्या हारे डाव ।*
*अंत काल गाफिल भया, दादू फिसले पांव ॥*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*२९. दिग्विजयी का पराभव *
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परैः प्रोक्ता गुणा यस्य निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः॥[१]
([१] दूसरे लोग जिसकी प्रशंसा करें तो वह निर्गुण होने पर भी गुणवान हो जाता है और जो अपनी प्रशंसा अपने ही मुख से करता है, फिर चाहे वह त्रिलोकेश इन्द्र ही क्यों न हो, उसे भी नीचा देखना पड़ता है। सु. र. भां. 87/1)
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महामहिम निमाई पण्डित एकान्त में दिग्विजयी पण्डित के साथ वार्तालाप करना चाहते थे, वे भरी सभा में उस मानी और वयोवृद्ध पण्डित की हँसी करना ठीक नहीं समझते थे।
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प्रायः देखा गया है, भरी सभा में लोगों के सामने अपने सम्मान की रक्षा के निमित्त शास्त्रार्थ करने वाले झूठी बात पर भी अड़ जाते हैं और उसे येन-केन प्रकारेण सत्य ही सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। सत्य को झूठ और झूठ को सत्य करने के कौशल का ही नाम तो आजकल असल में शास्त्रार्थ करना है।
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निमाई उससे शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते थे, किन्तु उसे यह बताना चाहते थे कि संसार में परमात्मा के अतिरिक्त अद्वितीय वस्तु कोई नहीं है। कोई कितना भी अभिमान क्यों न कर ले, संसार में उससे बढ़कर कोई-न-कोई मिल ही जायगा। .
ब्रह्मा जी की बनायी हुई इस सृष्टि में यही तो विचित्रता है, कहावत है-
*‘मल्लन कूँ मल्ल घनेरे, घर नाहिं तो बाहिर बहुतेरे’*
अर्थात *‘बलवानों को बहुत-से बलवान मिल जाते हैं, उने समीप उनके समान न भी हों तो बाहर बहुत-से मिल जायँगे।’*
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इसी बात को जताने के निमित्त निमाई पण्डित एकान्त में दिग्विजयी से बातें करना चाहते थे। सन्ध्या का समय है, कलकलनादिनी भगवती भागीरथी अपनी द्रुत गति से सदा की भाँति सागर की ओर दौड़ी जा रही हैं, मानो उन्हें संसारी बातें सुनने का अवकाश ही नहीं, वे अपने काम में बिना किसी की परवा किये हुए निरन्तर लगी हुई हैं।
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कलरव करते हुए भाँति-भाँति के पक्षी आकाश-मार्ग से अपने-अपने कोटरों की ओर उड़े जा रहे हैं। भगवान भुवनभास्कर के अस्ताचल में प्रस्थान करने के कारण विधवा की भाँति सन्ध्या देवी रुदन कर रही है। शोक के कारण उसका चेहरा लाल पड़ गया है, मानो उसे ही प्रसन्न करने के निमित्त भगवान निशानाथ अपनी सोलहों कलाओं सहित गगन में उदित होकर प्राणिमात्र को शीतलता प्रदान कर रहे हैं।
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पुण्यतोया जाह्नवी के वैडूर्य के समान स्वच्छ नील-जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब बड़ा ही भला मालूम होता है। प्रायः सभी पाठशालाओं के बहुत-से मेधावी छात्र गंगा जी के जल के बिलकुल सन्निकट बैठकर शास्त्रचर्चा कर रहे हैं। एक-दूसरे से प्रश्न पूछता है, वह उसका उत्तर देता है, पूछने वाला उसका फिर से खण्डन करता है। उत्तर देने वाले की दस-पाँच विद्यार्थी मिलकर सहायता करते हैं, अब सहायता करने वालों से शास्त्रार्थ छिड़ जाता है। इस प्रकार सब एक-दूसरे को परास्त करने की जी-जान से चेष्टा कर रहे हैं।
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शास्त्रार्थ करने में असमर्थ छात्र चुपचाप उनके समीप बैठकर शास्त्रार्थ के श्रवणमात्र से ही अपने को आनन्दित कर रहे हैं। बहुत-से दर्शनार्थी चारों ओर घिरकर बैठ जाते हैं, कोई-कोई खडे़ होकर भी विद्यार्थियों के वाक्-युद्ध का आनन्द देखने लगते हैं, तब दूसरे विद्यार्थी उन्हें इशारे से बिठा देते हैं। इस प्रकार विद्यार्थियों में खूब ही शास्त्रालोचना हो रही है।
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इन सभी छात्रों के बीच निमाई पण्डित मानो सिरमौर हैं। इस शास्त्रार्थ की जान वे ही हैं, वे स्वयं भी विद्यार्थियों में मिलकर शास्त्रार्थ करते हैं और दूसरों को भी उत्साहित करते जाते हैं। दूसरे पंडित एकान्त में दूर खड़े होकर, कोई सन्ध्या का बहाना करके, कोई पाठ के बहाने से निमाई के मुख से निसृत वाक्सुधा का रसास्वादन कर रहे हैं।
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बहुत-से पण्डित यथार्थ में ही सन्ध्या करके मनोविनोद के निमित्त विद्यार्थियों के समीप खड़े हो गये हैं, और एक-दूसरे के विवाद में कभी-कभी किसी की सहायता भी कर देते हैं। इसी बीच दिग्विजयी पण्डित भी अपने दो-चार अन्तरंग पण्डितों के साथ गंगाजी पर आये।
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दिग्विजयी का सुन्दर सुहावना गौर वर्ण था, शरीर सुगठित और स्थूल था, बड़ी-बड़ी सुन्दर भुजाएँ, उन्नत वक्षःस्थल और गोल चेहरे के ऊपर बड़ी-बड़ी आँखें बड़ी ही भली मालूम पड़ती थीं। उनके प्रशस्त सुन्दर ललाट पर रोली की एक चैड़ी-सी बिन्दी लगी हुई थी, सिर के बाल आधे पक गये थे, चेहरे से रोब और विद्वत्ता प्रकट होती थी, शरीर में अभिमानजन्य स्फूर्ति थी, केवल एक सफेद कुर्ता पहने नंगे सिर आकर दिग्विजयी ने गंगा जी को प्रणाम किया, आचमन करके वे थोड़ी देर बैठे रहे।
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फिर वैसे ही मनोविनोद के निमित्त विद्यार्थियों की ओर चले गये। निमाई के समीप के विद्यार्थी ने इशारे से बताया, ये ही वे दिग्विजयी हैं। दिग्विजयी को देखकर निमाई पण्डित ने उन्हें नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और बैठने के लिये आग्रह किया। पहले तो दिग्विजयी ने बैठने में संकोच किया, जब सभी ने आग्रह किया, तो वे बैठ गये।
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प्रायः मानियों के समीप ही मान-प्रतिष्ठा की परवा की जाती है, जो मान-अपमान से परे हैं उनके समीप मानी-अमानी, मूर्ख-पण्डित सभी समानरूप से जा-आ सकते हैं और उनकी सीधी-सादी बातों में वे मानापमान का ध्यान नहीं करते। इसीलिये तो लड़के, पागल तथा मूर्खों के साथ सभी बेखट के चले जाते हैं, उनसे उन्हें उद्वेग नहीं होता।
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उद्वेग का कारण तो अन्तरात्मा में सम्मान की इच्छा है। जिसके हृदय में सम्मान की लिप्सा है, वह माननीय लोगों में सम्मान के ही साथ जाना पसन्द करेगा, उसे इस बात का सदा भय बना रहता है, कि वहाँ मेरा अपमान न होने पावे। इसलिये उत्तम आसन का पहले से ही प्रबन्ध करा लेगा, तब वहाँ जाना स्वीकार करेगा।
(क्रमशः)
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