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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२. स्मरण का अंग ~ ८५/८८*
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जगजीवन माला फिरै, बिन कर हिवड़ा१ मांहि ।
इस सुमिरन थैं ऊपरै२, दूजा सुमिरन नांहि ॥८५॥
संत कहते हैं कि हृदय में निरंतर स्मरण बना रहने से बिना हाथों ही जप होता रहता है, इससे बढकर संत जगजीवन दासजी कहते हैं कि कोइ जप नहीं है। (१. हिवड़ा-हृदय) (२. ऊपरै-उत्तम, श्रेष्ठ)
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सोइ सुमिरन सोइ सुरति सौं, देह निरंतर होइ ।
जगजीवन तहँ कीजिये, जहँ हरि देखै सोइ ॥८६॥
संत कहते हैं वह ही सुमिरण है वह ही ध्यान है जो शरीर रुपी साधन से निरंतर होता रहे और प्रभु का दर्शन करा दे।
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पलटै काया प्रेम सों, नवी नवी नित होइ ।
जगजीवन जो जानिये, सुमिरन का सुख सोइ॥८७॥
संत कहते हैं कि प्रेम देह का स्वरुप बदल देता है वह नित नूतन लगती है, संत जगजीवन जी महाराज कहते हैं कि सुमिरण का यह ही सुख है।
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सुमिरन सांची सुरति सौं, जे करि जांणैं कोइ ।
जगजीवन ते संत जन, सहजैं परगट होइ ॥८८॥
संत कहते हैं कि यदि कोई सच्चे मन से स्मरण करें तो उन संतो के समक्ष प्रभु सहज ही प्रकट होते हैं।
(क्रमशः)
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