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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग आसावरी ९ (गायन समय प्रात: ६ से ९)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२१७ - त्रिताल
हां माई ! मेरो राम बैरागी, तजि जनि जाई ॥टेक॥
राम विनोद करत उर अंतरि, मिलिहौं बैरागनि धाई ॥१॥
जोगिन ह्वै कर फिरूँगी बिदेशा, राम नाम ल्यौ लाई ॥२॥
दादू को स्वामी है रे उदासी, रहि हौं नैन दोइ लाई ॥३॥
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अरी सँत रूप माई ! हां, तुम ठीक कहती हो - मेरा राम विरक्त ही है वह मुझे त्यागकर न चला जाय ।
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राम मेरे हृदय के भीतर क्रीड़ा कर रहे हैं । मैं भी विषयों से विरक्त हो, प्रेम रूप दौड़ लगाकर उन से मिलेँगी ।
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वे नहीं मिलेंगे तो योगिनी होकर राम नाम में वृत्ति लगाते हुये विदेशों में भ्रमण करूँगी ।
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यद्यपि मेरे स्वामी विरक्त हैं तो भी मैं अपने दोनों नेत्र उन्हीं के स्वरूप में लगावे रहूंगी ।
(क्रमशः)
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