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*जागहु लागहु राम सौं, रैन बिहानी जाइ ।*
*सुमिर सनेही आपणा, दादू काल न खाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सजीवन का अंग)*
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*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १०~दक्षिणेश्वर में अन्तरंग भक्तों के साथ*
*(१)श्रीरामकृष्ण की प्रथम प्रेमोन्माद अवस्था*
आज श्रीरामकृष्ण बड़े आनन्द में हैं । दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में नरेन्द्र आए हैं । और भी कुछ अन्तरंग भक्त हैं । नरेन्द्र ने यहाँ आकर स्नान किया और प्रसाद पाया ।
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आज आश्विन की शुक्ला चतुर्थी है- १६ अक्टूबर १८८२, सोमवार आगामी गुरुवार को सप्तमी है, दुर्गापूजा होगी । श्रीरामकृष्ण के पास राखाल, रामलाल और हाजरा हैं । नरेन्द्र के साथ एक-दो और ब्राह्मण लड़के आए हैं । आज मास्टर भी आए हैं ।
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नरेन्द्र ने श्रीरामकृष्ण के पास ही भोजन किया । भोजन हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने अपने कमरे में बिस्तर लगा देने को कहा, जिस पर नरेन्द्र आदि भक्त-विशेषकर नरेन्द्र-आराम करेंगे । चटाई के ऊपर रजाई और तकिये लगाए गए हैं ।
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श्रीरामकृष्ण भी बालक की भाँति नरेन्द्र के पास बिस्तर पर आ बैठे । भक्तों से, विशेषकर नरेन्द्र से, और उन्हीं की ओर मुँह करके, हँसते हुए बड़े आनन्द से बातचीत कर रहे हैं । अपनी अवस्था और अपने चरित्र का बातों बातों में वर्णन कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण(नरेन्द्र आदि भक्तों से)- मेरी इस अवस्था के बाद मुझे केवल ईश्वरी बातें सुनने की व्याकुलता होती थी । भागवत, अध्यात्मरामायण, महाभारत- कहाँ इनका पाठ हो रहा है, यही सब ढूँढ़ता फिरता था । आरियादह के कृष्णकिशोर के पास अध्यात्मरामायण सुनने जाया करता था ।
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“कृष्णकिशोर का कैसा विश्वास है ! वह वृन्दावन गया था, वहाँ एक दिन उसे प्यास लगी । कुएँ के पास जाकर उसने देखा कि एक आदमी खड़ा है । पूछने पर उसने जवाब दिया, ‘मैं नीच जाति का हूँ और आप ब्राह्मण हैं; मैं कैसे आपको पानी निकाल दूँ?’ कृष्णकिशोर ने कहा, *‘तू कह ‘शिव’ । शिव शिव कहने से ही तू शुद्ध हो जाएगा ।’* उसने शिव शिव कहकर पानी ऊपर निकाला । वैसा निष्ठावान् ब्राह्मण होकर भी उसने वही जल पीया । कैसा विश्वास है !
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“आरियादह के घाट पर एक साधु आया था । हमने सोचा कि एक दिन देखने जाएँगे । कालीमन्दिर में मैंने हलधारी से कहा, ‘कृष्णकिशोर और हम साधु-दर्शन को जाएँगे । तुम चलोगे?’ हलधारी ने कहा, ‘एक मिट्टी का पिंजरा देखने जाने से क्या होगा?’ हलधारी गीता और वेदान्त पढ़ता था न? इसी से उसने साधु-शरीर को ‘मिट्टी का पिंजरा’ बताया !”
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मैंने जाकर कृष्णकिशोर से वह बात कही तो वह बड़े क्रोध में आ गया । उसने कहा, ‘क्या ! हलधारी ने ऐसी बात कही है? जो ईश्वर-चिन्तन करता है, राम-चिन्तन करता है, और जिसने उसी उद्देश्य से सर्वत्याग किया है, क्या उसका शरीर मिट्टी का पिंजरा ठहरा? हलधारी नहीं जानता कि भक्त का शरीर चिन्मय होता है !’ उसे इतना क्रोध आ गया था कि, कालीमन्दिर में फूल तोड़ने आया करता था, पर हलधारी से भेंट होने पर मुँह फेर लेता था । उससे बोलता तक न था ।
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“उसने मुझसे कहा था, ‘तुमने जनेऊ क्यों फेंक दिया?’ जब मेरी यह अवस्था हुई तब आश्विन की आँधी की तरह एक भाव आकर वह सब कुछ न जाने कहाँ उड़ा ले गया , कुछ पता ही न चला ! पहले की एक भी निशानी न रही । होश नहीं थे । जब कपड़ा ही खिसक जाता था, तो जनेऊ कैसे रहे? मैंने कहा, ‘एक बार तुम्हें भी उन्माद हो जाय तो तुम समझो !’
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“फिर हुआ भी वैसा ! उसे उन्माद हो गया । तब वह केवल ‘ॐ ॐ’ कहा करता और एक कोठरी में चुपचाप बैठा रहता था । यह समझकर कि वह पागल हो गया है, लोगों ने वैद्य बुलाया । नाटागढ़ का राम कविराज आया, कृष्णकिशोर ने उससे कहा, ‘मेरी बीमारी तो अच्छी कर दो, पर देखो मेरे ॐकर को मत छुड़ाना !’ (सब हँसे ।)
(क्रमशः)
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