मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

*४. विरह कौ अंग ~ ११७/१२०*

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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*४. विरह कौ अंग ~ ११३/११६*
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सब ही पंडित सब गुनी, सब ही चतुर सुजान ।
कहि जगजीवन ते बड़े, जेहि लागै हरि बांन ॥११७॥
संत जगजीवन जी कहते हैं सब ही जन विद्वान हैं, गुणी हैं, चतुर हैं किंतु वास्तव में वे ही बड़े हैं जिन्हें परमात्मा के विरह का बाण लगा है जो प्रभु दर्शन के लिये दुःखी हैं।
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हरदम अल्लाह याद करि, दरद बंद दिल रोज ।
कहि जगजीवन गगन मंहि, मगन पिछांणै खोज ॥११८॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो जन हर समय प्रभु या अल्लाह को याद कर पीड़ा का अनुभव करते हैं वे सामान्य जन भी धरती पर पदचिन्हों को पहचानते हैं किन्तु जिनके ह्रदय में प्रभु विरह है वे जन तो आकाश में भी प्रभु के पद चिन्ह पहचान जाते हैं।
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सुखन पाक दिल पाक तन२, आसिक अल्लह लीन ।
कहि जगजीवन मिलि रहै, ज्यूँ जल मांही मीन ॥११९॥
(२. सुखन पाक दिल पाक तन-वाणी, मन एवं तन से परिशुद्ध)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो जीव तन मन से पवित्र हैं वे परमात्मा के या अल्लाह के सच्चे प्रेमी परमात्मा का सान्निध्य उसी प्रकार पाते हैं जैसे मछली जल का पाती है और उस सानिध्य में आनंदित रहती है।
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जे मारै तो जीविये, बेधी बिरह संसार । 
कहि जगजीवन मार तूं, मांहि मरै हरि सार ॥१२०॥ 
संत जगजीवन जी कहते हैं कि आप हमें मारेंगे तो हम जी उठेंगे। क्योंकि वह भी आप की कृपा होगी इस संसार में तो हम आपके विरह से ही घायल रहेंगे। हे प्रभु आप मारेंगे तो हमारे विकार मरेंगे और अतंर में आप सार रुप में रहेंगे ही।
(क्रमशः)

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