मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

माया का अंग ५१/५५

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १२. माया का अंग)
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*॥आसक्तता मोह ॥*
*दादू मोह संसार को, विहरै तन मन प्राण ।*
*दादू छूटै ज्ञान कर, को साधु संत सुजाण ॥५१॥*
संसार का मोह शरीर मन प्राण इन अबको दुःखी करता है । कोई ज्ञानी पुरुष ही ज्ञान द्वारा मोह को त्याग सकता है । अन्य नहीं । 
वासिष्ठ में- ये नाना प्रकार के दुःख आत्मा के नहीं है किन्तु देहादिकों के हैं जो इनको आत्मा के मान लेता है, वह प्राणी दीनभाव को प्राप्त हो जाता है । कुटुम्ब की चिन्ता वाले जीव के कुल शील तथा गुण शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं । जैसे अपक्व घट में भरा हुआ पानी घट के साथ ही नष्ट हो जाता है । 
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*मन हस्ती माया हस्तिनी, सघन वन संसार ।*
*तामैं निर्भय हो रह्या, दादू मुग्ध गँवार ॥५२॥*
यह मन नाम का हाथी इस गहन संसार वन में मायारूपी हथिनी को देखकर मोहित होता हुआ निर्भय विचरण कर रहा है । अपनी मौत को भी नहीं देखता । 
महाभारत में कहा है कि- यह जीव जन्म मृत्यु जरा आदि दुःखों से दुःखित होता हुआ भी सावधान नहीं होता । जो हितकारक नहीं है । उनको ही हित मान रहा है, जो ध्रुव नहीं उनको ध्रुव मान रहा है किन्तु सचेत नहीं होता ।
जब सब कुछ को त्यागकर अवश्य जाना ही होगा तो फिर अनर्थों में क्यों फंस रहा है । अपने अर्थ स्वरूप आत्मा को क्यों नहीं जानता अन्धकारमय लम्बे चौड़े रास्ता को बिना कलेवा के जहां कोई भी देश विश्राम के लिये नहीं बना है वहां पर बिना अवलम्बन के तूं अकेला कैसे पार करेगा । तेरे मरने के बाद तेरे पीछे चलने वाला कोई भी नहीं है किन्तु हे जीव तेरे पाप पुण्य ही साथ जायेंगे ।
तेरे मरने पर तो भाई बन्धु कुछ दूर जाकर वापस लौट आयेंगे । तेरे हजारो माता पिता पुत्र हुए हैं और आगे भी होने वाले है तुम्ही बताओ तुम किसके हो । मैं एक हूँ, मेरा कोई भी नहीं है । मैं भी किसी दूसरे का नहीं हूँ । मैं ऐसा किसी को भी नहीं देख रहा हूँ कि जिससे मैं उसका बन जाऊं या वह मेरा बन जाय । इसलिये सब कुछ त्यागकर तथा आशा रहित होकर परिग्रह से रहित होकर रहो । जिसने सब कुछ त्याग दिया वह ही विद्वान् हैं ।
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*॥ काम ॥*
*दादू काम कठिन घट चोर है, घर फोड़ै दिन रात ।*
*सोवत साह न जागई, तत्त्व वस्तु ले जात ॥५३॥*
*काम कठिन घट चोर है, मूसे भरे भंडार ।*
*सोवत ही ले जायगा, चेतन पहरे चार ॥५४॥*
*ज्यों घुण लागै काठ को, लोहा लागै काट ।*
*काम किया घट जाजरा, दादू बारह बाट ॥५५॥*
यह काम बड़ा बलवान् शत्रु है, क्योंकि यह दुर्जय है । जिस शरीर में रहता है उसी का विनाश कर देता है । शरीर के धातु को नष्ट कर देता है । और जीव अज्ञान निद्रा में सौ रहा है । अतः चारों अवस्थाओं में सावधान रहो । जैसे धुण काष्ठ को खा जाता है और लौह का मैल जर लोहे को क्षीण कर देता है । वैसे ही काम के उपभोग से यह शरीर जर्जरित हो जाता है । यह काम अन्तःकरण को भी दूषित बना देता ही जिससे मन परमात्मा में स्थिर नहीं रह सकता । इसलिये मुमुक्षु को कामवासना से दूर रहना चाहिये । 
लिखा है कि- हे विद्वानों क्षणिक सुख देने वाले स्त्रीसंग से विश्राम लो । और करुणा में भी प्रज्ञारूपी स्त्री का संग करो । क्योंकि जब नरक में जावोगे तो स्त्री के सघनस्तन तथा हारमणियों से सुशोभित कटिप्रदेश रक्षा नहीं करेगा ।
भोग तो बादलों में चमकनी वाली बिजली के सदृढ़ चंचल है आयु वायु के द्वारा इधर उधर ले जाने वाले बादल के पानी की तरह क्षणभंगुर है । यौवन की लालसा भी स्थिर नहीं रहती । अतः समाधि तथा धैर्य आदि गुणों से सिद्ध होने वाले योग में अपनी बुद्धि को स्थिर करो । 
(क्रमशः)

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