शनिवार, 4 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(२५/२८)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू रोजी राम है, राजिक रिजक हमार ।*
*दादू उस प्रसाद सौं, पोष्या सब परिवार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विश्वास संतोष का अंग ११२*
रज्जब रोग न छाड ही, मूके१ मनिख२ मीच । 
तो ब३ रिजक४ कहँ जायेगा, समझी मनवा नीच ॥२५॥ 
जब मनुष्य२ को रोग नहीं छोड़ता और मृत्यु नहीं त्यागता१ तब प्राणी की जीविका४ अब३ कहाँ जायेगी ? हे नीच मन ! इसको भली प्रकार समझकर संतोष धारण कर । 
अन१ बाँछी२ ही आवसी, जरा विपति अरु मीच । 
त्यों माया मिलसी तुझे, मन मत कल्पे नीच ॥२६॥ 
वृद्धावस्था, विपत्ति और मृत्यु बिना१ इच्छा२ ही आती है, वैसे ही माया भी तुझे आ मिलेगी । अत: हे नीच मन ! कल्पना मत कर । 
ज्यों अहि१ कठिन करंड में, मूंसा पैसा२ काट । 
जन रज्जब भोजन बन्या, अरु निकस्या बहिं३ बाट ॥२७॥ 
संतोष सर्प१ करंड में बैठा रहता है तृष्णा युक्त चूहा करंड को काट कर उसमें घुसता२ है तब सर्प उसे३ खा जाता है और उसके काटे हुये मार्ग से निकल जाता है । वैसे ही संतोषी की तो मुक्ति होती है और तृष्णा मुक्त का नाश नाश होता है । 
सिरज्या आवहि स्वर्ग सौं, जल थल करै सुकाल । 
रज्जब रहै न बिन रच्या, खाया होय उखाल१ ॥२८॥ 
यदि अपने लिये उत्पन्न हुआ होगा तो जैसे समुद्र से जल आकर स्थल में सुकाल करता है, वैसे ही स्वर्ग से भी अपने पास आ जायेगा और जो अपने लिये नहीं रचा गया है, उसकी तो खाने पर भी वमन१ हो जाती है ।
(क्रमशः)

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