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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*४. विरह कौ अंग ~ ९३/९६*
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कहि जगजीवन अलिफ बे, दो ऊँकार इक नांम ।
गुप्तनि सुखननिवाज७ दिल, आसिक अलह रांम ॥९३॥
(७. सुखननिवाज-अपने वचन को पूरा करने वाला)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि ईश्वर के नाम में दो ओम कार या राम दो ही अक्षर हैं जो ईश्वर प्रेमियों को निश्चित रुप से सुख देने वाले हैं।
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जिन कूं जे क्रित संभवै, ते क्रित ते प्रवीन ।
कहि जगजीवन हरि भगत, बिरह अगनि तन खीन ॥९४॥
संत जगजीवन जी कहते हैं जिन्हें जो क्रिया कलाप भाते हैं, वे इसमें महारत हासिल किये हैं, और हरि भक्त तो हरि भक्ति से ही देह को क्षीण किये हैं।
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कहि जगजीवन बिरहणी, सुरग जाइ तो रांम ।
मृत्यु मंडल मंहि नांम हरि, कहै सुनै सब ठांम ॥९५॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु विरह में बिरहणी स्मरण से स्वर्ग जाये तो प्रभु सानिध्य व पृथ्वी पर रहे तो सब जगह स्मरण ही करती है।
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कहि जगजीवन बिरहनी, सुरग मृत्यु पाताल ।
तीन भवन में तूं ही तूं, प्राण बसै पिव नाल८ ॥९६॥
(८. नाल-साथ)
संत जगजीवनजी कहते हैं कि विरहणी स्वर्ग मृत्युलोक तथा पाताल तीनो लोकों में आपको ही देखती है उसके प्राण परमात्मा में ही बसते हैं।
(कमशः)
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