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*चंद सूर पावक पवन, पाणी का मत सार ।*
*धरती अंबर रात दिन, तरुवर फलैं अपार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विश्वास संतोष का अंग ११२*
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लिखी१ लक्ष्मी पाइये, अरपी२ आयु सु होय ।
इज्जत गृह वैराग में, घटे बधे नहिं दोय ॥६५॥
प्रारब्ध१ अनुसार धन मिलता है और जो कर्मानुसार भगवान ने दी२ है वही आयु होती है । चाहे गृहस्थ हो वा विरक्त हो धन और आयु ये दोनों धटते बढते नहीं ।
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रज्जब नर तरु शीश पर, माया मधु१ विधि होय ।
आवत जात अचिन्त में, दोष न दीजे कोय ॥६६॥
जैसे वृक्ष के शिर पर पुष्प में शहद१ आता है और मक्खी द्वारा चला जाता है, वृक्ष को उसकी कोई चिन्ता नहीं होती, वैसे ही यदि माया के चिन्तन से रहित नर के पास माया आवे और चली जावे तो उसे कोई प्रकार का दोष नहीं देना चाहिये ।
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आवे अजाची बरतणी१ लेय, खाय सु पहिरै और हीं देय ।
यहु रज्जब संतोष स्वरूप, चल हि मुनीश्वर चाल अनूप ॥६७॥
मुनीश्वरों के पास माया बिना माँगी आती है तब वे उसे बर्तने१ के लिये ग्रहण करते हैं, आप खाते पहनते हैं और अन्यों को भी खिलाते - पहनाते हैं, यही संतोष का स्वरूप है, इस अनुपम चाल से ही मुनीश्वर चलते हैं ।
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रज्जब माया छाया में सदा, लघु दीरघ व्यवहार ।
अचिग१ आश अस्थूल विधि, यहु साधू मत सार ॥६८॥
छाया में ही सदा छोटी बड़ी होने का व्यवहार होता है, छाया वाला स्थूल तो अडिग१ रहता है । वैसे ही माया में कम अधिक होने का व्यवहार होता है, संत आशा द्वारा डिगते नहीं अडिग ही रहते हैं यही संतों का सार सिद्धान्त है ।
(क्रमशः)
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