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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ १८५/१८८*
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हरि हरि हरि हरि रांमजी, हरि धुनि मांही मन ।
कहि जगजीवन हरि हरि करतां, सहजै सीझै तन ॥१८५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि हरि कहने से हरि धुन मन में लग जाता है। संत जी कहते हैं हरि कहने से शरीर प्रभु के अनुरूप हो जाता है।
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रांम रिदै सोइ आतमा, बसत बग्य स्रवग्य१ ।
कहि जगजीवन अलख तजि, आंन कथै सो अग्य ॥१८६॥
(१. स्रवग्य-सर्वज्ञ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसके हृदय में राम हो वह ही आत्म ज्ञानी जन सब जानते हैं संत कहते हैं कि प्रभु को छोड़कर जो अन्य की बात करे वह ही अज्ञानी है।
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रसनां मांहि रसायण, जे कोई सुमिरै रांम ।
कहि जगजीवन सुधि स्यूं, सरि आवै सब कांम ॥१८७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो राम नाम का स्मरण करेंगे उनकी जिह्वा पर राम नाम का रसायन प्रेम भक्ति मिश्रित रस से युक्त हो । संत कहते हैं कि मैं पूरे विश्वास से कहता हूँ कि उस जन के सब कार्य पूर्ण होगेँ।
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रांम कहै ते ऊधरे, जे मन तजे विकार ।
कहि जगजीवन चित मंहि राखै, मूल रकार मकार ॥१८८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि मन विकार त्याग दे तो राम कहने से तर जायेगा । संत कहते हैं कि ररंकार व ममंकार की ध्वनि से ध्वनित होने वाले राम शब्द को सदा चित में रखें।
(क्रमशः)
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