बुधवार, 8 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(४१/४४)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू सिरजनहारा सबन का, ऐसा है समरत्थ ।*
*सोई सेवक ह्वै रह्या, जहँ सकल पसारैं हत्थ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विश्वास संतोष का अंग ११२*
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नहीं तहाँ तै सब किया, रज्जब पिंड रु प्राण ।
सो अब भूलै क्यों तुझे, करि संतोष सुजाण ॥४१॥
प्रभु ने मिथ्या माया से शरीर प्राणादि सब संसार की रचना की है, वे तुझे कैसे भूल सकते हैं ? अत: हे बुद्धिमान, तुझे संतोष करना चाहिये ।
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पूत पांगुला पेट में, आरंभ१ अशन२ न आश ।
पुष्टि पराये पगनि पर, विघ्न नहीं विश्वास ॥४२॥
माता के पेट में पुत्र पंगु के समान है, वह अपने उद्योग१ द्वारा भोजन२ की आशा नहीं करता, उसकी पुष्टि दूसरों के पैरो पर निर्भर है । वैसे ही ईश्वर विश्वासी का जीवन निर्विघ्न रहता है ।
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असंख्य लोक आतम भरी, सबकी करै संभाल ।
गुण अवगुण देखै नहीं, कीये के प्रतिपाल ॥४३॥
असंख्य लोको में असंख्य ही जीवात्माएं परिपूर्ण है किन्तु प्रभु सभी की संभाल करते हैं । वे गुण अवगुण को न देखकर अपने उत्पन्न किये हुये के प्रतिपालक अवश्य हैं ।
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जड़ वासण जड़ का घड़या, रीता रहै न सोय ।
कुंभ कुम्हार कमाऊ दोन्यों, सो पूरण किन होय ॥४४॥
मूर्ख कुम्हार का घड़ा हुआ मिट्टी का बर्तन जड़ होता है वही भी खाली नहीं रहता फिर जिस शरीर रूप कुंभ को बनाने वाला ईश्वर रूप कुम्हार और शरीर रूप कुंभ दोनों ही कमाने वाले हैं, वे कैसे नहीं भरेगा ?
(क्रमशः)

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