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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग आसावरी ९ (गायन समय प्रात: ६ से ९)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२३० - उपदेश । भँगताल
जोगिया बैरागी बाबा,
रहे अकेला उनमनि लागा ॥टेक॥
आतम जोगी धीरज कंथा,
निश्चल आसण आगम पँथा ॥१॥
सहजैं मुद्रा अलख अधारी१,
अनहद सींगी रहणि हमारी ॥२॥
काया वन - खँड पाँचों चेला,
ज्ञान गुफा में रहे अकेला ॥३॥
दादू दरशन कारण जागे,
निरंजन नगरी भिक्षा माँगे ॥४॥
जिज्ञासु जीवात्मा रूप योगी का परिचय रूप उपदेश कर रहे हैं - हे बाबा ! हमारा जिज्ञासु जीवात्मा ही विरक्त योगी है । यह विषयों से अलग अकेला रह कर समाधि में लगा है ।
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इस योगी की धैर्य ही कंथा है, निश्चल रहना आसन है ।
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प्रभु प्राप्ति के हेतु शास्त्र का विचार ही मार्ग चलना है, निर्द्वन्द्वावस्था ही मुद्रा है । मन इन्द्रियों का अविषय ब्रह्म ही आश्रय दँड१ है । अनाहत नाद ही सींगी है ।
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शरीर - वन खँड में निवास है । पँच ज्ञानेन्द्रियां ही शिष्य हैं । एकाकी ही ज्ञान गुफा में रहता है ।
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ब्रह्म साक्षात्कारार्थ जागते हुये निरंजन ब्रह्म रूप नगरी से साक्षात्कार रूप भिक्षा मांगता है । यह हमारे रहने का ढँग है ।
(क्रमशः)
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