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*दादू जिन पहुँचाया प्राण को, उदर उर्ध्व मुख खीर ।*
*जठर अग्नि में राखिया, कोमल काया शरीर ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विश्वास संतोष का अंग ११२*
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बल बाहस१ नहिं बंदि२ में, विभै३ बिना वित४ नास ।
बुद्धि रहित वपु में सु वपु, तब तोहि दिया जु ग्रास५ ॥१३॥
गर्भ रूप कैद२ में भुजाओं१ का बल नहीं था, कोई प्रकार का ऐश्वर्य३ नहीं था, धन४ का तो नाश ही था, उस समय माता के शरीर में तेरा शरीर बुद्धि रहित था, तभी तुझे उस प्रभु ने भोजन५ दिया था ।
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शैल१ शिला में देत है, आरम्भ२ बिना आहार ।
तो रज्जब विश्वास का, छोड़े मत व्यवहार ॥१४॥
भगवान बिना उद्योग२ भी शिला - कीट को पर्वत१ की शिला में भोजन देते हैं, तब प्रभु - विश्वास का व्यवहार नहीं छोड़ना चाहिये ।
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अगम ठौर सु आहार दे, संकट सारे काज ।
जन रज्जब विश्वास इस, उस हि किये की लाज ॥१५॥
गर्भ रूप अगम स्थान में भी जो भोजन देते हैं, दु:ख में भी कार्य सिद्ध करते हैं, इस विश्वास को रखने से उस प्रभु को अपने रचित की लाज रखनी ही पड़ती है ।
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आरंभ१ बिना आहार दे, गये२ अनलहिं गोविन्द ।
तो रज्जब रोवै पेट को, हरि अराध३ मति मंद ॥१६॥
भगवान ठाण पर बंधे हुये हाथी२ को और अनल पक्षी को बिना उद्योग१ ही भोजन देते है, तब हे मतिमंद ! पेट भरने की चिन्ता में क्यों रोता है ? हरि की उपासना३ कर ।
(क्रमशः)
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