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*सुरति पुकारै सुन्दरी, अगम अगोचर जाइ ।*
*दादू विरहनी आत्मा, उठ उठ आतुर धाइ ॥*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/.
*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*.
*८२. संन्यास-दीक्षा*
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देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं
जायासुतादिषु सदा ममतां विमुंच।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं
वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठ:॥[१]
([१] अस्थि, मांस और रूधिर आदि पदार्थों से बने हुए इस शरीर के प्रति अहंता को त्याग दो, स्त्री-पुत्र तथा कुटुम्ब-परिवार वालों में ममता मत रखो। इस क्षणभंगुर असार संसार की वास्तविक स्थिति को समझते हुए वैराग्य से प्रेम करने वाले बन, सदा भक्तिनिष्ठ होकर ही जीवन को बिताओ। श्रीमद्भा. माहात्म्य. ४/७९)
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वैराग्य में कितना मजा है, इसे वही पुरुष जान सकता है, जिसके हृदय में प्रभु के पादपद्मों में प्रीति होने की इच्छा उत्पन्न हो गयी हो, जिसे संसारी विषय-भोग काटने के लिये दौड़ते हों, वही वैराग्य में महान सुख का अनुभव कर सकता है।
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जिसकी इन्द्रियाँ सदा विषय-भोगों की ही इच्छा करती रहती हों, जिसका मन सदा संसारी पदार्थों का ही चिन्तन करता रहता हो, वह भला वैराग्य के सुख को समझ ही क्या सकता है। मन जब संसारी भोगों से विरक्त होकर सदा महान त्याग के लिये तड़पता रहे, जिसका वैराग्य पानी के बुद्बुदों के समान क्षणिक न होकर स्थायी हो, वही त्याग के असली सुख का अनुभव करने का सर्वोत्तम अधिकारी है।
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जो जोश में आकर क्षणिक वैराग्य के कारण त्याग-पथ का अनुसरण करने लगते हैं, उनका अन्त में पतन हो जाता है, इसीलिये तो कहा है- ‘त्याग वैराग्य के बिना टिक ही नहीं सकता।’ इसलिये जो वैराग्य-राग-रसिक नहीं बना वह भगवत-राग-रस का पूर्ण रसिया भक्तिनिष्ठ भागवत बन ही नहीं सकता। हृदय त्याग के लिये इस प्रकार अकुलाता रहे, जिस प्रकार जल में बहुत देर डूब की लगाये रहने पर प्राण श्वास लेने के लिये अकुलाने लगते हैं।
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महाप्रभु को संन्यास-दीक्षा देने के लिये भारती महाराज राजी हो गये। यह देखकर प्रभु की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। वे प्रेम में बेसूध बने हुए सम्पूर्ण रात्रि भगवन्नाम का कीर्तन करते रहे और आनन्द के उल्लास में आसन से उठ-उठकर पागल की तरह नृत्य करते रहे। जिस प्रकार नवागत वधू से मिलने के लिये अनूरागी युवक बेचैनी के साथ रात्रि होने की प्रतीक्षा करता रहता है, उसी प्रकार महाप्रभु संन्यास-धर्म में दीक्षित होने के लिये उस रात्रि के अन्त होने की प्रतीक्षा करते रहे।
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उस रात्रि में प्रभु को क्षणभर के लिये भी निद्रा नहीं आयी। निरन्तर संकीर्तन करते रहने के कारण प्रभु के नेत्र कुछ आप-से-आप ही मुंदने-से लगे। इतने में ही आम्र की डालों पर बैठे हुए पक्षियों ने अपने कोमल कण्ठों से भाँति-भाँति के स्वरों में गायन आरम्भ किया। मानो वे महाप्रभु के संन्यास ग्रहण करने के उपलक्ष्य में पहले से ही मंगलाचरण कर रहे हों।
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पक्षियों के कलरव को सुनकर प्रभु की तन्द्रा दूर हूई और वे आसन पर से उठकर बैठ गये। पास में ही बेसूध पड़े हुए आचार्यरत्न, नित्यानन्द आदि को प्रभु ने जगाया। सबके जग जाने पर प्रभु नित्यकर्मों से निवृत्त हुए। गंगा जी में स्नान करने के निमित्त अपने सभी साथियों के सहित प्रभु ने अपने भावी गुरुदेव के चरण-कमलों में प्रणाम किया और बड़ी ही नम्रता से दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए उनसे निवेदन किया- ‘भगवन् ! मैं उपस्थित हूँ, अब आज्ञा दीजिये मुझे क्या-क्या करना होगा।’
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कुछ विवशता-सी प्रकट करते हुए भारती जी ने कहा- ‘अब संन्यास-दीक्षा के निमित्त जिन-जिन सामग्रियों की आवश्यकता हो, उन्हें एकत्रित करना चाहिये। इसका प्रबन्ध मैं अभी किये देता हूँ।’ यह कहकर उन्होंने एक आदमी को सब सामान लाने के निमित्त कटवा के लिये भेजा।
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कण्टक-नगर-निवासी नर-नारियों को कल तक यही पता था कि भारती जी उस युवक संन्यास-दीक्षा के लिए को देने के लिये कभी सहमत न होंगे; किंतु आज जब प्रात: ही उन लोगों ने यह समाचार सुना कि भारती तो उस ब्राह्मण-युवक को संन्यासी बनाने के लिये राजी हो गये और आज ही उसे शिखा-सूत्र से रहित करके द्वार-द्वार से भिक्षा मांगने वाला गृह-त्यागी विरागी बना देंगे, तब तो उनके दु:ख का ठिकाना नहीं रहा।
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न जाने उन ग्रामवासियों को प्रभु के प्रति दर्शन मात्र से ही क्यों ममता हो गयी थी। वे सभी प्रभु को अपना घर का-सा सगा-सम्बन्धी ही समझने लगे। बात-ही-बात में बहूत-से स्त्री-पुरुष आश्रम में आकर एकत्रित हो गये। स्त्रियाँ एक ओर खड़ी होकर आंसू बहा रही थीं। पुरुष आपस में मिलकर भाँति-भाँति की बातें कर रहे थे।
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कोई तो कहता- ‘अजी ! इस युवक को ही समझाना चाहिये। जैसे बने, समझा-बुझाकर इसे इसकी माता के समीप पहुँचा आना चाहिये।’ इस पर दूसरा कहता- ‘वह समझे तब तो समझावें। जब उसके सगे-सम्बन्धी ही उसे नहीं समझा सके, तो हम-तुम तो भला समझा ही क्या सकते हैं।’
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इतने ही में एक बूढा़ बोल उठा- ‘अजी ! हम सब इतने आदमी हैं, संन्यास का कार्य ही न होने देंगे, बस, निबट गया किस्सा।’ इस पर किसी विचारवान ने कहा- ‘भाई ! यह कैसे हो सकता है। हम ऐसे शुभ काम में जबरदस्ती कैसे कर सकते हैं। ऐसे पुण्य-कर्मों में यदि कुछ सहायता न बन सके तो इस तरह विघ्न करना तो ठीक नहीं है। हम लोग मुंह से ही समझा सकते हैं। जबरदस्ती करना हमारा धर्म नहीं।’
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इस पर उद्धत स्वभाव का युवक जोरों से बोल उठा- ‘अजी ! धर्म गया ऐसी-तैसी में। ऐसे धर्म में तो तेल डालकर आग लगा देनी चाहिये। बने हैं, कहीं के धर्मात्मा। यदि ऐसी ही बात है, तो तुम ही क्यों नहीं संन्यास ले लेते। क्यों दिनभर यह ला, वह ला, इसे रख, उसे उठा करते रहते हो।’
‘औरों को बुढ़िया सिख-बुधि देय, अपनी खाट भीतरो लेय।’
(क्रमशः)
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