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*साधु शब्द सुख वर्षहि, शीतल होइ शरीर ।*
*दादू अन्तर आत्मा, पीवे हरि जल नीर ॥*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*८१. गौरहरि का संन्यास के लिये आग्रह*
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भारती किंकर्तव्यविमूढ़-से बने बैठे हुए थे। उन्हें प्रभु को संन्यास से निषेध करने के लिये कोई युक्ति सूझती ही नहीं थी। बहुत देर तक सोचने के पश्चात एक बात उनकी समझ में आयी। उन्होंने सोचा- ‘इनके घर में अकेली वृद्धा माता है, युवती स्त्री है, अवश्य ही ये उनसे बिना ही पूछे रात्रि में उठकर चले आये हैं। इसलिये मैं इनसे कह दूँ कि जब तक तुम अपने घर वालों से अनुमति न ले आओगे, तब तक मैं संन्यास न दूँगा।
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इनकी माता तथा पत्नी संन्यास के लिये इन्हें अनुमति देने ही क्यों लगी। सम्भव है इनके बहुत आग्रह पर वे सम्मति दे भी दें, तो जब तक ये सम्मति लेने घर जायंगे तब तक मैं यहाँ से उठकर कहीं अन्यत्र चला जाऊंगा। भला, इतने सुकुमार शरीर वाले युवकों को संन्यास की दीक्षा देकर कौन संन्यासी लोगों की अपकीर्ति का भाजन बन सकता है। इन काले-काले घुंघराले बालों को कटवाते समय किस वीतरागी त्यागी संन्यासी का हृदय विदीर्ण न हो जायगा।’
यह सब सोचकर भारती जी ने कहा- ‘पण्डित! मालूम पड़ता है, तुम अपनी माता तथा पत्नी से बिना ही कहे रात्रि में उठकर भाग आये हो। जब तक तुम उनसे आज्ञा लेकर न आओगे तब तक मैं तुम्हें संन्यास-दीक्षा नहीं दे सकता।
प्रभु ने कहा- ‘भगवन् ! मैं माता तथा पत्नी की अनुमति प्राप्त कर चुका हूँ।’
भारती जी ने कुछ विस्मय के साथ पूछा- ‘कब प्राप्त कर चुके हो?’
प्रभु ने कहा- बहुत दिन हुए तभी मैंने इस सम्बन्ध की सभी बातें बताकर उन्हें राजी कर लिया था और उनकी सम्मति लेकर ही मैं संन्यास ले रहा हूँ।’ भारती जी ने कहा- ‘इस तरह से नहीं, बहुत दिन की बातें तो भूल में पड़ गयीं। आज तो तुम उनकी बिना ही सम्मति के आये हो। उनकी सम्मति के बिना मैं तुम्हें कभी भी संन्यास की दीक्षा नहीं दुंगा !’
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इतनी बात के सुनते ही प्रभु एक दम उठकर खडे़ हो गये और यह कहते हुए कि- ‘अच्छा, लीजिये मैं अभी उनकी सम्मति लेकर आता हूँ।’ वे नवद्वीप की ओर द्रुतगति के साथ दौड़ने लगे। जब वे आश्रम से थोड़ी दूर निकल गये तब भारती जी ने सोचा- ‘इनकी इच्छा के विरुद्ध करने की सामर्थ्य है। यदि इनकी ऐसी ही इच्छा है कि यह निर्दय काम मेरे ही द्वारा हो, यदि ये अपने लोकविख्यात गुरुपद का सौभाग्य मुझे ही प्रदान करना चाहते हैं, तो मैं लाख बहाने बनाऊँ तो भी मुझे यह कार्य करना ही होगा।
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अच्छा, जैसी नारायण की इच्छा।’ यह सोचकर उन्होंने प्रभु को आवाज दी- ‘पण्डित ! पण्डित ! लौट आओ। जैसा तुम कहोगे वैसा ही किया जायगा। तुम्हारी बात को टालने की किसमें सामर्थ्य है।’ इतना सुनते ही प्रभु उसी प्रकार जल्दी से लौट आये। आकर उन्होंने भारती जी के चरणों में फिर से प्रणाम किया और मुकुन्द के पदों को सुनकर प्रभु श्रीकृष्ण–प्रेम में विभोर होकर रुदन करने लगे और मुकुन्ददत्त से बार-बार कहने लगे- ‘हां, गाओ, गाओ ! फिर क्या हुआ ! अहा, राधिका जी का वह अनुराग धन्य है।’
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इस प्रकार गायन के पश्चात संकीर्तन आरम्भ हुआ। गांव के सैकड़ों मनुष्य आ-आकर संकीर्तन में सम्मिलित होने लगे। गांव से मनुष्य ढोल-करताल तथा झाँझ-मजीरा आदि बहुत-से वाद्यों को साथ ले आये थे। एक साथ बहुत-से वाद्य बजने लगे और सभी मिलकर-
हरि हरये नम: कृष्ण यादवाय नम:।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन॥
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-इस पद का कीर्तन करने लगे। प्रभु भावावेश में आकर संकीर्तन के मध्य में दोनों हाथ ऊपर उठाकर नृत्य करने लगे। सभी ग्रामवासी प्रभु के उस अद्भुत नृत्य को देखकर मन्त्रमुगध-से हो गये। भारती जी के शरीर में भी प्रेम के सभी सात्त्विक भावों का उदय होने लगा और वे भी आत्म-विस्मृत होकर पागल की भाँति संकीर्तन में नृत्य करने लगे। तब उन्हें प्रभु की महिमा का पता चला। वे प्रेम में छक-से गये। इस प्रकार सम्पूर्ण रात्रि इसी प्रकार कथा-कीर्तन और भगवत-चर्चा में ही व्यतीत हुई।
(क्रमशः)
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