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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ १७७/१८०*
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प्रव्रिति मांहि प्रेम रस, निव्रिति मांही नांम ।
कहि जगजीवन प्रव्रिति, रसना हरि हरि रांम ॥१७७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारी प्रवृत्ति राम नाम कहने की हो और जब हम निवृत्ति को प्राप्त हो तब भी स्मरण हो संत कहते हैं कि हमारी प्रवृत्ति ही राम नाम हरि नाम कहने की बन जाये।
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र रो म मो अक्षिर उभै, मम जीवन मम प्रांन ।
कहि जगजीवन इष्ट हरि, रांम मंत्र हम जांन ॥१७८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि र व म दो अक्षर ही जिनसे हमारा इष्ट मंत्र राम बनता है ये ही हमारे प्राण हैं।
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र रौ म मौ अक्षिर उभै, भगति मुकति बैकुंठ ।
कहि जगजीवन तब सहाय हरि, जब जम रोकै कंठ ॥१७९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि र व म ये दो अक्षर समवेत भक्ति मुक्ति व हमारे बैकुंठ हैं। ये जब यम हमारे कंठ अवरुद्ध कर देगे तब भी सहायक होंगे।
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र रौ म मौ अक्षिर उभै, अंतर गति प्रकास ।
कहि जगजीवन रोम रोम धुनि, रसनां हरि हरि प्यास ॥१८०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि र व म दो अक्षर मन में प्रकाश करते हैं इनके प्रभाव से रोम रोम में राम ध्वनि व जिह्वां हरि नाम का उच्चारण करती रहती है।
(क्रमशः)
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