शनिवार, 11 अप्रैल 2020

*४. विरह कौ अंग ~ ७७/८०*


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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*४. विरह कौ अंग ~ ७७/८०*
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दरद दूर दीसै नहीं, काया कठिन कठोर ।
नेह न भीजै प्रेम सौं, जगजीवन चितचोर ॥७७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जीव विरह पीड़ा से दूर हैं, वे जीव कठोर हृदय हैं फिर वे चितचोर परमात्मा उन पर कैसे द्रवित होंगे?
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दूरि सनेही दूरि घरि, सुण सखि इह अंदेस । 
जगजीवन उस देस का, कोइ आंनि७ कहै संदेस ॥७८॥
(७. आंनि-आ कर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सुन हे सखी, वे स्नेही परमात्मा दूर घर में निवास करते हैं, उस बहुत दूर देश का कोइ तो आकर संदेश कहै।
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दूरि सनेही दूरि घरि, क्यौं करि मिलिये ताहि ।
जगजीवन पूछत फिरै, कोइ संत कहै समझांहि ॥७९॥
संतजगजीवन जी विरहावस्था का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि वे परमात्मा स्नेही का घर भी दूर है उनसे कैसे मिला जा सकता है ? अतः ये जीवात्मा सभी संतों से पूछते फिर रहे हैं कि कोइ तो बताये कि प्रभु कहाँ हैं ?
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दूर सनेही दूरि घर, अगम पन्थ गमि नांहि ।
जगजीवन पिव मिलन की, त्रिषा रहै मन मांहि ॥८०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वे स्नेही परमात्मा भी, उनका घर भी दूर है, पथ भी कठिन है, वहाँ पहुंचा भी नहीं जा सकता। संत कहते हैं कि इसी कारण परमात्मा से मिलन की प्यास मन में ही रह जाती है।
(कमशः)

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