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*हंस सरोवर तहाँ रमैं, सुभर हरि जल नीर ।*
*प्राणी आप पखालिये, निर्मल सदा होइ शरीर ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २४६)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१४६. प्रभु का पुरी में भक्तों से पुनर्मिलन*
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व्रज की लीलाओं के साथ हमारा वर्णन मत करो।' श्री सत्यभामा जी का आदेश पाकर आपने उसी समय द्वारा की लीलाओं का पृथक वर्णन करने का निश्चय किया और उसका वर्णन उन्होंने 'ललितमाधव' नामक नाटक में किया। उसी समय 'विदग्धमाधव' और ललितमाधव' इन दोनों नामों की उत्पत्ति हुई। नीलाचल में पहुँचकर ये प्रभु के समीप नहीं गये।
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ये दोनों ही भाई नम्रता की तो सजीव मूर्ति ही थे, यवनों के संसर्ग में रहने के कारण ये अपने को अत्यन्त ही नीच समझते थे और यहाँ तक कि मन्दिर में घुसकर दर्शन भी नहीं करते थे, दूर से ही जगन्नाथ जी की ध्वजा को प्रणाम कर लेते थे। इसलिये रूप जी महात्मा हरिदास जी के स्थान पर जाकर ठहरे।
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हरिदास जी तो जाति के यवन थे, किन्तु गौर भक्त उनका चतुर्वेदी ब्राह्मणों से भी अधिक सम्मान करते थे, वे भी जगन्नाथ जी के मन्दिर में प्रवेश नहीं करते थे। यहाँ तक कि जिस रास्ते से मन्दिर के पुजारी और सेवक जाते थे, उस रास्ते से भी कभी नहीं निकलते थे। प्रभु नित्य प्रति समुद्रस्नान करके हरिदास जी के स्थान पर आते थे।
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दूसरे दिन जब प्रभु नित्य की भाँति हरिदास जी के आश्रम पर आये, तब श्री रूप जी ने भूमि पर लोटकर प्रभु के पादपद्मों में साष्टांग प्रणाम किया। प्रभु की दृष्टि ऊपर की ओर थी। हरिदास जी ने धीरे से कहा- 'प्रभो ! रूप जी प्रणाम कर रहे है।' रूप का नाम सुनते ही चौंककर प्रभु ने कहा- 'हैं ! क्या कहा? रूप आये हैं क्या?'
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यह कहते-कहते प्रभु ने उनका आलिंगन किया और उन्हें वहीं रहने की आज्ञा दी। इसके अनन्तर प्रभु ने सभी गौड़ीय तथा पुरी के भक्तों के साथ श्रीरूप का परिचय करा दिया। श्री रामानन्दराय और सार्वभौम महाशय दोनों ही कवि थे। रूप जी का परिचय पाकर ये दोनों ही परम सन्तुष्ट हुए और प्रभु से इनकी कविता सुनने के लिये प्रार्थना करने लगे।
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एक दिन प्रभु राय रामानन्द जी, सार्वभौम भट्टाचार्य, स्वरूप दामोदर तथा अन्यान्य भक्तों को साथ लेकर हरिदास जी के निवास स्थान पर श्री रूप जी के नाटकों को सुनने के लिये आये। सबके बैठ जाने पर प्रभु ने रूप जी से कहा- 'रूप ! तुम अपने नाटकों को इन लोगों को सुनाओ। ये सभी काव्यमर्मज्ञ, रसज्ञ और कवि हैं।'
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इतना सुनते ही रूप जी लज्जा के कारण पृथ्वी की ओर ताकने लगे। उनके मुख से एक भी शब्द नहीं निकला; तब प्रभु ने बड़े ही स्नेह के साथ कहा- 'वाह जी, यह अच्छी रही ! हम यहाँ तुम्हारी कविता सुनने आये हैं, तुम शरमाते हो !! शरम की कौन-सी बात है? कविता का तो फल ही यह है कि वह रसिको के सामने सुनायी जाय। हाँ, सुनाओं, संकोच मत करो। देखे, ये राय बड़े भारी रसमर्मज्ञ हैं। इन्हें तो हम पकड़ लाये हैं।
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राय ने कहा- 'हाँ जी, सुनाइये। इस प्रकार शरमा ने से का न चलेगा। पहले तो अपने नाटक का नाम बातइये, फिर विषय बातइये, तब उसके कहीं-कहीं के स्थलों को पढ़कर सुनाइये।' इस पर भी रूप ही रहे। तब प्रभु स्वयं कहने लगे- 'इन्होंने 'ललितमाधव' और विदग्धमाधव' -ये दो नाटक लिखे हैं। 'विदग्धमाधव' में तो भगवान की व्रज की लीलाओं का वर्णन है और 'ललितमाधव' में द्वारकापुरी की लीलाओं का। इनसे ही सुनिये।
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इन्होंने रथ के सम्मुख नृत्य करते समय जो मेरे भावों को समझकर श्लोक बनाया था, उसे तो मैंने आप लोगों को सुना ही दिया, अब इनके नाटक में से कुछ सुनिये।' राय ने कुछ प्रेम पूर्वक भर्त्सना के स्वर में कहा- 'क्यों जी, सुनाते क्यों नहीं? देखे प्रभु भी कह रहे हैं। प्रभु की आज्ञा नहीं मानते? हाँ, पहले विदग्धमाधव का मंगलाचरण सुनाइये।' नान्दी के मुख से भगवान की धीरे 'विदग्धमाधव' का मंगलाचरण पढ़ने लगे-
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सुधानां चान्द्रीनामपि मधुरिमोन्माददमनी
दधाना राधादिप्रणयघनसारै: सुरभिताम् ।
समन्तात् सन्तापोदगमविषमसंसारसरणी-
प्रणीतां ते तृष्णां हरतु हरिलीलाशिखरिणी॥[१]
{[१] जो चन्द्रमा में हुए अमृत की मधुरिमा के मद को चूर्ण करने वाली है अर्थात चन्द्रामृत से भी मीठी है और श्री राधादि व्रजांगनाओं के प्रणयरूप जी कर्पूर द्वारा सुगन्धित बनी हुई है, वह हरि-लीलारूपिणी शिखरिणी(श्री खण्ड) सन्ताप को उत्पन्न करने वाले विषम संसार मार्ग में भ्रमण करने से उत्पन्न हुई तृष्णा को सब ओर से मिटा दे(दही, मीठा, कर्पूर, इलायची, केसर आदि डालकर श्री खण्ड बनाते हैं। वहाँ प्रेम, प्रेम युक्त लीला, हाव-भाव, कटाक्ष और व्रजांगनाओं के प्रबल प्रणय आदि को मिलाकर हरिलीलारूप जी श्रीखण्ड तैयार किया गया है)। (विदग्धमाधव ना. 1/2)}
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श्लोको सुनते ही सभी एक स्वर में 'वाह ! वाह ! करने लगे। श्री रूपजी का लज्जा के कारण मुख लाल पड़ गया, वे नीचें की ओर देख रहे थे। इस पर राय ने कहा- 'रूप जी ! आप तो बहुत ही अधिक संकोच करते हैं। इसीलिये, लीजिये मैं आपके काव्य की प्रशंसा ही नहीं करता।
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अच्छा, तो यह तो भगवान की वन्दना हुई। अब भगवत-स्वरूप जो गुरुदेव हैं, जो कि प्राणियों के एकमात्र भजनीय और इष्ट हैं, भगवत-वन्दा के अनन्तर उनकी वन्दा में जो कुछ कहा हो, उसे और सुनाइये।' यह सुनकर श्री रूप जी और भी अधिक सिकुड़ गये। महाप्रभु के सम्मुख उन्हीं के सम्बन्ध का श्लोक पढ़ने में उन्हें बड़ी घबड़ाहट-सी होने लगी। किन्तु, फिर भी राय महाशय के आग्रह से रुक-रूककर ये लजाते हुए पढ़ने लगे-
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अनर्पितचरीं चिरात करुणयावतीर्ण: कलौ
समर्पयितुमुन्नतोज्जवलरसां स्वभक्तिश्रियम्।
हरि: पुरटसुन्दरद्युतिकदम्बसंदीपित:
सदा हृदयकन्दरें स्फुरतु व: शीचनन्दन:॥[२]
{[२] अपनी उत्कृष्ण एवं उज्जवल रसमयी भक्तिसम्पदा को, जो बहुत दिनों से किसी को अर्पित नहीं की गयी हैं, बांटने के लिये ही जिन्होंने दयावश कलियुग में अवतार धारण किया है, वे सुवर्ण के समान सुन्दर कान्ति से देदीप्यमान शचीनन्दन(श्रीगौरांग) तुम्हारे हृदय में स्फूर्ति लाभ करें। (विद्गधमाधव ना.१/१)}
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इसे सुनते ही प्रभु कहने लगे- 'भगवान जाने इन कवियों को राजा लोग दण्ड क्यों नहीं देते। किसी की प्रशंसा करने लगते हैं, तो आकाश-पाताल एक कर देते हैं। इनसे बढ़कर झूठा और कौन होगा? इस श्लोक में तो अतिशयोक्ति की हद कर डाली है।'
(क्रमशः)
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