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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*४. विरह कौ अंग ~ १८५/१८८*
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इस्क अलह बीमार तन, आसिक रज रजूल ।
कहि जगजीवन सिर कदम, करम करीम कबूल ॥१८५॥
संत जगजीवन जी कहते है कि अल्लाह के या प्रभु के ईश्क में प्रेम में यह तन व्यथित रहता है। हे दयालु इस आशिक यानि भक्त का सिर आपके चरणों में है, आप दया कर इस प्रार्थना को स्वीकार करें।
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कहि जगजीवन बीम दिल, आसिक तन बीमार ।
लागर अल्लह लीन रहै, सुखन पिछांणै सार ॥१८६॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि इस मन के आधार प्रभु हैं और यही व्यथा इस देह को है, जिससे यह देह क्षीण होकर भी प्रभु शरण में ही सुख पाती है।
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कहि जगजीवन बंदगी, फिकर खुदाइ फिराक ।
अल्लह आसिक एक रस, उन पांइन की खाक ॥१८७॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि मेरी प्रार्थना तो परमात्मा के सामीप्य का अवसर पाना है । प्रभु व प्रभु भक्त एक ही है, प्रभु पूज्य है व साधक पूजक है उनके चरणों की धूल है।
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दरषत बरग अजा बिवर, महुवत खुरद जलाब ।
कहि जगजीवन विस्तरे, रसीद अलह आब ॥१८८॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि मृत्यु भय से जीव भयभीत हो पीत हो रहा है। जलाब का अर्थ स्वर्ण जैसा कहा गया है अजा मृत्युभय है। संत कहते नाम स्मरण का कण भी इससे मुक्त कर सकता है।
(क्रमशः)
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