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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १२. माया का अंग)
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*पर घर परिहर आपणी, सब एकै उणहार ।*
*पसु प्राणी समझै नहीं, दादू मुग्ध गँवार ॥१२१॥*
स्त्री चाहे अपनी हो या पराई । उनका भोग भी समान है । दोनों में से किसी के भी साथ भोग करोगे तो धातु क्षीण होगा । अतः चाहे नारी अपनी हो या पराई, दोनों के साथ मुमुक्षु को भोग नहीं करना चाहिये । किन्तु दोनों ही त्याज्य है । जो यह कहते हैं कि अपनी विवाहिता के त्याग में शास्त्र में दोष बतलाया है । अतः उसका त्याग उचित नहीं, ऐसा मानने वालों की बुद्धि विषय से मोहित हो रही है । पशु की तरह वह अज्ञानी है । क्योंकि यह मनुष्य शरीर भोग के लिये नहीं मिला है किन्तु अपने कल्याण के लिये ही है ।
मनुस्मृति में लिखा है कि- विवाह विलास के लिये नहीं किन्तु संतान पैदा करने के लिये ही है । विलासिता से तेज, बुद्धि, बल की हानि होती है । अहो मोह पैदा करने वाली विलासिता को, इन्द्रियों को जीत कर त्याग देने से जीव सुखी हो जाता है ।
विवाह की कोई नित्यविधि नहीं, जिससे कि विवाह करना आवश्यक हो । यह तो परिसंख्या विधि है । परिसंख्याविधि उसको कहते हैं कि दोनों जगह प्राप्त होने पर एक में नियमित कर देना । अर्थात् स्वतः प्राप्त भोग को अपनी स्त्री में ही निहित करना दूसरी से नहीं, ऐसा नियमन है । विधान नहीं । किंच यह उपदेश मुमुक्षु पुरुषों के लिये है न कि गृहस्थ के लिये । अतः कोई वाद विवाद नहीं । गृहस्थ भी चाहे तो वैराग्य लेकर ईश्वरभजन कर सकता है । श्रीमद्भागवत में लिखा है कि वेद ऐसे ही कर्मों को करने की आज्ञा देता है जिसका विधान हो, जिनमें मनुष्यों की स्वाभाविक प्रवृत्ति न हो, संसार में देखा जाता है कि मैथुन मांस मद्य के सेवन में प्राणियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति देखी जाती है । तब उसे उनके प्रवृत्त करने के लिये विधान तो हो ही नहीं सकता ऐसी स्थिति में विवाह यज्ञ सौत्रामणी यज्ञ के द्वारा ही उनके सेवन की व्यवस्था की गई है । वेद का तात्पर्य यह है कि लोगों की उच्छृंखल प्रवृत्ति का नियन्त्रण और मर्यादा में स्थापन अर्थात् वेद को उनकी ओर से हटाना ही अभीष्ट है । सौत्रामणी यज्ञ में भी सुरापान का विधान नहीं है । किन्तु सूंघने का ही विधान है, पीने का नहीं । यज्ञ में पशु का स्पर्शमात्र ही विहित है, हिंसा नहीं, इसी प्रकार अपनी धर्म पत्नी के साथ मैथुन की आज्ञा भी विषयभोग के लिये नहीं किन्तु धार्मिक परम्परा की रक्षा के लिये ही दी गई है । इस विशुद्ध परमधर्म को अज्ञानी नहीं जानते ।
पद्मपुराण में- स्त्रियों के नेत्र कटाक्ष को देवता भी नहीं जीत सकते, उस नेत्र कटाक्ष को जिसने जीत लिया वह ही हरिभक्त कहलाता है । नारी के चरित्र को देखकर मुनिलोग भी उन्मत्त हो जाते हैं । अतः विषय लालची कभी भी हरिभक्त नहीं हो सकता । मैथुन से बल हानि होती है, उससे निद्रा बहुत आती है । निद्रा से ज्ञान नष्ट हो जाता है और आयु अल्प हो जाती है । अतः विद्वान् को चाहिये कि नारी को मृत्यु तुल्य देखते हुए भगवान् के चरणकमलों में अपने मन को लगावे ।
इस लोक परलोक में भगवान् के चरणों की सेवा करने वाले को सुख प्राप्त होता है और उनके चरणों की सेवा मोक्ष को देने वाली है और स्त्री की सेवा नाना योनियों में कष्ट को देने वाली है । मैं ऊपर हाथ उठाकर कहता हूं कि मेरी बात सुनो अपने हृदय को गोविन्द के भजन में लगावो । पीड़ा देने वाली स्त्री के शरीर में मत लगाओ ।
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*पुरुष पलट बेटा भया, नारी माता होहि ।*
*दादू को समझै नहीं, बड़ा अचंभा मोहि ॥१२२॥*
*माता नारी पुरुष की, पुरुष नारी का पूत ।*
*दादू ज्ञान विचार कर, छाड़ गये अवधूत ॥१२३॥*
अपनी आत्मा ही पुत्र बनकर आती है । इस श्रुतिके अनुसार पति ही पुत्ररूप से स्त्री के द्वारा पैदा होता है । पुत्ररूप से उत्पन्न पति ही अपनी भार्या को बालक बन कर माता शब्द से संबोधित करता है । इस रीति से पति ही पुत्र है, नारी ही माता है । अतः साधक को चाहिये कि सर्वथा स्त्री का त्यागकर देना चाहिये । अतः स्त्री को जाया कहते हैं । “जायते स्वयंमेव पतिर्यस्याम इति व्युत्पत्ति से ।”
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*॥ अध्यात्म ॥*
*दादू माया का जल पीवतां, व्याधि होइ विकार ।*
*सेझे का जल निर्मला, प्राण सुखी सुध सार ॥१२५॥*
जो माया रस का पान करते हैं वे सदा व्याधि तथा मानसिक विकारों से भरे रहते हैं । जो हरि रस का पान करते हैं वे शुद्धान्तकरण वाले सुखी रहते हैं । ब्रह्मभाव को भी प्राप्त हो जाते हैं ।
वासिष्ठ में- जिसके स्त्री है उसको ही भोगों की इच्छा होती है । जो स्त्रीरहित है, उसके तो भोग की भूमि ही नहीं, तो फिर इच्छा कैसी । जिसने स्त्री का परित्याग कर दिया मानो उसने तीनों लोकों को त्याग दिया । जगत् के त्याग से ही सुख होता है ।
आपातमात्र सुन्दर तथा दुस्तरभोगों में जो चंचल हैं उनमें, मैं भौंरें की तरह उड़कर रमण नहीं करता हूँ । क्योंकि उन में जन्म मरण बुढ़ापा आदि का भय है । अतः हे ब्रह्मन् ! मैं अपने पुरुषार्थ से परम पद को प्राप्त करके शान्त हूँ ।
(क्रमशः)
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